अशोक अंजुम की कारयित्री प्रतिभा का नया आयाम है- ‘मैं बन्दूकें बो रहा‘। इस बार उन्होंने खंड काव्य लिखने का बीड़ा उठाया है। भगत सिंह पर आधारित यह खंड काव्य दोहा छंद में रचित है। भगत सिंह पर लिखने के दो कारण ‘ये जो किताब है न…’ शीर्षक भूमिका में हैंं। रचनाकार को एक ओर तो भगत सिंह जैसा कोई देशभक्त नज़र नहीं आता, दूसरी ओर राष्ट्र सेवा में ही सुख की अनुभूति करने वाला यह आदर्श चरित्र आज भी प्रासंगिक, विशेषतः युवाओं के लिए प्रेरणाप्रद लगता है। अतः स्वाभाविक है कि इस कृति में भगत सिंह के आत्मसंघर्ष, साम्राज्यवाद-विरोध, बलिदान के माध्यम से भारतीय स्वाधीनता-संग्राम का एक उदात्त अध्याय उजागर हुआ है।
पंद्रह सर्गों या खंडो में सुनियोजित इस कृति के प्रारंभ में ही भगत सिंह के युग प्रवर्तक व्यक्तित्व का महत्व अभिव्यक्त हुआ है:
“ऋणी रहेगा सर्वदा, जिसका भारत देश,
कुल तेईस की उम्र में, बदल गया परिवेश।
भगत सिंह को जूझने का हौसला परिवार से मिला था। क्योंकि उनका परिवार क्रांतिकारियों का “कुनबा सिरमौर” था। पिता किशन सिंह और चाचा अजीत सिंह अंग्रेज शासकों की आँँख की किरकिरी थे। बचपन से ही भगत सिंह में क्रांतिकारी संस्कार प्रबल हो उठे थे। अशोक अंजुम ने तीन वर्ष के भगत सिंह को पिता और नंदकिशोर मेहता की बातचीत सुन खेत में तिनके बोते दिखाया है। पिता के पूछने पर बालक का कथन है:
‘मैं बंदूकेंं हो रहा, हो स्वतंत्र यह देश।’
दस-ग्यारह वर्ष की अवस्था में वे अपना भविष्य निश्चित कर चुके थे:
‘मुझको करने काम वे, भाग जाय अंग्रेज।’
अंग्रेजों से देश की मुक्ति का संकल्प कृति में बार-बार मुखर हुआ है:
(क) अंग्रेजों से मुक्त हो, अपना भारत देश।
(ख) जीवन का उद्देश्य बस, आजादी-ए-देश।
(ग) ब्रिटिश राज्य से मुक्ति हो, बड़े देश की शान।
भगत सिंह शुरू में गांधीजी के स्वाधीनता-संघर्ष के आंदोलन से प्रभावित थे, लेकिन चौरी-चौरा की घटना के बाद उन्हें संदेह हुआ- ‘सिर्फ अहिंसा किस तरह, कर सकती है त्राण?’ अतः वे सशस्त्र संघर्ष की ओर मुड़े:
बहुत ज़रूरी है करें, हम सशस्त्र संघर्ष,
भारत यों आजाद हो, दे देंं जान सहर्ष।
खंडकाव्य में मार्मिक और उदात्त स्थलों की पहचान अपरिहार्य शर्त है। प्रबंध रचना में ‘डिटेल्स’ होते हैं, बहुत-सी सूचनाएँँ होती हैं, लेकिन अनेक प्रसंग संवेदना और विचार जगत को स्पर्श करने वाले होते हैं। इस कृति में भी बचपन में बंदूकें के बोने का संकल्प, जलियांवाला बाग नरसंहार कांड, सांडर्स वध, असेंबली में बम-विस्फोट, जेल की यात्राएँँ, अंतिम यात्रा आदि संदर्भ पाठक को कभी आर्द्र करते हैं और कभी क्षोभ-आक्रोश से भर जाते हैं। कथा-प्रवाह के बीच से कृति का ‘विजन’ निरंतर ध्वनित होता है। भगत सिंह का जलियांवाला बाग की रक्त-स्नात मिट्टी को घर लाना रोमांचित कर देता है और इस प्रसंग से यह विचार-सूत्र उभरता है- ‘किस भाँँति हो भारत का उद्धार’। इसी तरह बम-विस्फोट के बाद गिरफ्तार होने पर भी मुख्य उद्देश्य ओझल नहीं होता है:
कैद स्वयं हम हो गए, नहीं तनिक षड्यंत्र,
मिटी सर्वथा मूल से, शोषक शासन-तंत्र।
भगत सिंह और उनके साथियों ने असेंबली में जो पर्चे फेंके थे, उनमें व्यक्त विचारों को कृति में इस तरह प्रस्तुत किया गया है कि वे समग्र ‘विजन’ के संवाहक बन गए हैं। इस संदर्भ में दो दोहे ध्यानाकर्षक हैं:
(क) हत्या हो इंसान की, काम सहज आसान,
हत्या किंतु विचार की, समझो मत आसान।
(ख) बड़े-बड़े साम्राज्य भी, निगल गया है काल’
किंतु विचारों का कभी, बाँँका हुआ ना बाल।
कृति के विजन को व्यक्त करने में समर्थ सक्षम, उपयुक्त और प्रभावपूर्ण भाषा अशोक अंजुम के पास है। वे बिंबोंं और प्रतीकों पर अधिक निर्भर नहीं हैंं। लोकोक्तियों-मुहावरों के सहयोग से भाषा सहज संप्रेषणीय बनी है। कहीं-कहीं पूरी पंक्ति लोकोक्तिमय है- ‘होनहार बिरवान के होत चिकने पात।’ ‘लगे उजड़ने नीड़’, ‘जीवन का मजमून’, ‘ज्यों सर्दी की धूप’, आदि कुछ अवतरणों में अभिप्राय को व्यंजित करने की क्षमता भरपूर है। ‘युद्ध भूमि को जा रहा, सच कर जैसे लाल’ जैसी पंक्तियों में अर्हग्रहण के साथ-साथ बिम्बग्रहण भी हुआ है। कृति के समापन चरण में वीर हुतात्माओं का महत्व-गायन ओजपूर्ण बन पड़ा है:
चमक रहे इतिहास में, बनकर ध्रुव नक्षत्र,
रौशन जिनसे क्रांति है, यत्र-तत्र-सर्वत्र।
आज के भारतीय युवा के लिए यह संदेश बहुत मूल्यवान है कि खिलाड़ी और अभिनेता उसके रोल मॉडल नहीं हो सकते, उसके वास्तविक हीरो भगत सिंह जैसे बलिदानी होने चाहिए- ‘असली हीरो हैं यही, युवा-शक्ति दे ध्यान’। इस प्रखर संदेश तथा परिवेश की प्रामाणिकता और सकारात्मक विजन से समृद्ध यह कृति निश्चय ही अशोक अंजुम के काव्य-यश में अभिवृद्धि करेगी। दोहा छंद में पहला खंड काव्य होने के नाते इसका अतिरिक्त महत्व भी है।