काव्यपरक आत्मसंवाद की अनोखी शैली: सीमा संगसार

डॉ. अजित की सुनो मनोरमा का मुझे बेसब्री से इंतजार था। यह दरअसल उनके फेसबुक पोस्ट मायापुरी सीरीज का संपादित अंश है।

अजित जिस मनोरमा की बात कर रहे हैं वह मायापुरी की माया ही है और यह माया हम सबके अंतस में बसी होती है। बस हम उसे चेतनता में खो देते हैं।

यह जो अवचेतन मन की माया है न; उसे सुनना, देखना और उसे स्पर्श करना एक अलौकिक अनुभूति है, जिसे महसूसने के लिए हमें उस मायालोक में उतरना पड़ता है। सुनो मनोरमा यह पुकार उसे बुलाने की उसे अपना सब कुछ कह देने की और फिर अपने आपको रिक्तता से भर देने की यात्रा है। इस सुनने और सुनाने की प्रक्रिया में वक्ता भी वे खुद हैं और श्रोता भी…! मनोरमा तो एक छाया है जिसे हम हिलते डुलते देखकर ही संतुष्ट होते रहते हैं कि हमारे आस-पास भी कोई है। यह उपस्थिति पाठक के मन में कई-कई बार कई तरीके से रोपा जाता है।

मैं जब बारिश को होशपूर्वक देखना शुरू कर देता हूँ तो बारिश जल्द थम जाती है। बारिश चाहती है कि कोई उसके कार्यक्रम का दर्शक न बने वो मनुष्य को अधिकतम श्रोता की भूमिका में देखना चाहती है।

अजित अपने मन का सारा मनोविज्ञान और दर्शन इतनी जहीनता से समेटते हुए रखते हैं कि सुनने वाला न केवल उन्हें सुनता है बल्कि उनके साथ निरंतर संवाद करता रहता है। यह संवाद की प्रक्रिया निरंतर नदी की तरह बहती रहती है जिसमें आग्रह तो है लेकिन ठहरने की उकताहट नहीं है।
"suno-manorama" by dr. ajit singh tomar. published by shwetwarna prakashan
तुमसे मिलने के बाद सच कहूँ तो मैं कुछ अंशों में स्थगित हो गया हूँ और तुम्हारी स्मृतियां उसी स्थगन से छन कर मुझ तक आती है। इस संवाद में कुछ अनकहा सा है जिसमें लेखक निरंतर अपनी प्रवाह में शब्दों के जरिए उस एकांत और मौन को रेखांकित करता रहता है।

उसने मेरी पीठ पर एक वृत बनाया और उसके ठीक मध्य कामनाओं का एक अमूर्त चित्र खींच दिया। बहरहाल कुछ दिनों से तुम्हारे यादों की नौकरी पर हूँ इसलिए लगता नहीं है कि तुमसे दूर हूँ। मेरे न लगने से तुम नज़दीक नहीं हो जाती हो यह बात जानता हूँ।

साहित्यिक विधा की अगर बात करें तो न तो यह डायरी है, न संस्मरण है और न ही कोई वृत्तांत इसे कहानी भी नहीं कह सकते हम लेकिन इनकी भाषा शैली पूरी तरह काव्यात्मक है तो आप इसे पद्यात्मक गद्य कह सकते हैं। निर्मल वर्मा के साहित्य की तरह ही इनकी लेखनी में कोई शुरुआत और अंत नहीं होती है। आप इसे पढ़ते हुए किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते लेकिन इन्हें पढ़ते वक़्त आपको जीवन के विभिन्न रहसयों का साक्षात्कार होता रहेगा।

दुनियादारी के गणित के बीच जोड़, घटा, गुणा भाग और हासिल के बीच हम भूल जाते हैं ज़िन्दगी का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा और उसका एक छोटा सा किस्सा।

किसी भी स्मृतियों के स्थगन काल का हिस्सा बन जाना ब्रहाण्ड की सर्वाधिक असुरक्षित जगह की नागरिकता के लिए आवेदन करने जैसा अनुभव था।

डॉ. अजित का यह एकालाप आत्मिक संवाद आपके हृदय के भीतरी तल को छुएगा। आप उसमें अपनी माया को तलाश कर उससे निरंतर संवाद कर सकते हैं। यह काल्पनिकता ही दरअसल एक सौन्दर्य बोध है जीवन का जिसे हर पल में बचाए रखना चाहिए।

बस एक बात अखरती है कि इन पाठों का कोई शीर्षक नहीं है और सभी पाठ उसी एकरसता में लिखे गए हैं तो पाठक कई बार दिग्भ्रमित हो जाता है कि कहाँ से उसे छोड़ा था। लेकिन मजे की बात यह है कि कोई सिक्वेंस की बाध्यता न होने पर आप कहीं से भी इसे पढ़ सकते हैं।

काव्यपरक आत्मसंवाद की यह अनोखी शैली उम्मीद है पाठकों को  पसंद आएगी।

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