स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में क्रांतिकारी भगत सिंह का योगदान अतुलनीय है। साहस, सूझ-बूझ व नेतृत्व क्षमता के कारण फिरंगियों को सोचने पर मजबूर करने वाले भगत सिंह की कहानी आज बच्चा-बच्चा दुहराता है। देश कहता है कि पुत्र हो तो भगत सिंह जैसा! महज 24 साल की अवस्था में फिरंगियों ने देशभक्त भगत सिंह को फाँसी पर लटका दिया था। सरदार किशन सिंह और माता विद्यावती कौर के आँगन में अपनी आँखें खोलने वाले भगत सिंह की सोच पर जलियाँवाला बाग हत्याकांड ने गहरा असर छोड़ा था, तब उनकी उम्र महज 12 साल थी। कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर आजाद भारत के लिए भगत सिंह ने नौजवान भारत सभा की स्थापना की। काकोरी कांड में राम प्रसाद बिस्मिला सहित चार क्रांतिकारियों को फाँसी और अन्य 16 को कारावास की सजा सुनाये जाने से गुस्साये भगत सिंह चन्द्रशेखर आजाद के साथ उनकी पार्टी में जुड़े और पार्टी का नया नाम दिया – ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’। महज 21 साल की उम्र में भगत सिंह ने राजगुरु के साथ मिलकर अंग्र्रेज अधिकारी जे.पी सांडर्स को मार गिराया। फिर, बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर नयी दिल्ली स्थित ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेंट्रल एसेम्बली में बम और पर्चें फेंके, तब वो 22 साल के थे। बम और पर्चे फेंककर बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह भागे नहीं, उनका मकसद था अंग्रेजों को होश में लाना! करीब दा साल तक भगत सिंह जेल में रहें और 23 मार्च 1931 की शाम में भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु को फाँसी पर लटका दिया गया।
महज 23 साल की जिंदगी में ब्रिटिश हुकूमत को ‘औकात’ बताने वाले भगत सिंह भारत में ‘इंकलाब’ लाना चाहते थे। चाहते थे पूँजीपति मुक्त भारत! भगत सिंह का जीवन प्रेरित करता है भारत के लिए मर मिटने को। निश्चित, भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों की जीवनी हर युवाओं को पढ़नी चाहिए!
शहीद-ए-आज़म भगत सिंह को जानना है, समझना है, तो ‘मैं बन्दूकें बो रहा’ का अध्ययन जरूरी है। उस महान क्रांतिकारी की काव्यमय जीवन गाथा है-‘मैं बन्दूकें बो रहा’। इस किताब की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसे दोहा छंद में लिखा गया है। इसके लिखतहार हैं-अशोक ‘अंजुम’।
अशोक ‘अंजुम’ साहित्यिक क्षेत्र में किसी परिचय के मुहताज नहीं हैं। पद्मभूषण नीरज लिखते हैं-‘अशोक ‘अंजुम’ बहुमुखी प्रतिभा के धनी रचनाकार हैं। कविता में गीत, ग़ज़ल, दोहा, हास्य व्यंग्य, लघुकथा, समीक्षा, कहानी आदि के साथ-साथ चित्रकला, संपादन और अभिनय के क्षेत्र में भी आपकी मजबूत पकड़ है।’ ऐसी ही राय पद्मश्री बेकल उत्साही की है। बकौल उत्साही-‘अशोक अंजुम एक दमकते हुए जर्रे का नाम है जो चाँद-तारों को धरती पर उतार सकता है-काव्य रचना की हर विधा उसकी कलम की नोंक पर-ग़ज़ल, छंद, कविता, दोहे, अतुकांत, रुबाई, चौपाई आदि अंजुमन के रोशन दिये हैं।’
15 अलग-अलग खंडों में रचित ‘मैं बन्दूकें बो रहा’ में 505 दोहे हैं, जिनके माध्यम से दोहाकार ने भगत सिंह के विराट व्यक्तित्व को एक जगह रखने की सराहनीय कोशिश की है। आखिर भगत सिंह ही क्यों? पाठकों को पहले ही दोहाकार बता देते हैं। ‘ये जो किताब है न…’ में अशोक अंजुम ने लिखा- ‘बचपन में श्री मनोज कुमार द्वारा अभिनीत ‘शहीद’ देखी थी। तब बहुत रोमांचित हुआ था फ़िल्म देखकर और तभी से भगत सिंह के प्रति दिल में विशेष भाव और सम्मान पैदा हो गया था।’
बचपन से ही दोहाकार के दिल और दिमाग पर भगत सिंह छाये हुए थे, जब खंड काव्य के लिए दोहाकार ने चरित्र की तलाश की, तो शहीद-ए-आज़म भगत सिंह का नाम सबसे ऊपर रहा। सच में, बचपन की चीजें और बचपन की बातें दिल पर गहरा असर डालती है और इसका सुपरिणाम है-‘मैं बन्दूकें बो रहा’।
11 फरवरी 2019 से खंड काव्य लेखन की शुरुआत करने वाले दोहाकार अशोक अंजुम ने इस यज्ञ में अंतिम आहुति 23 मार्च 2020 को दी। मतलब, तेरह महीनों की अवधि लगे खंड काव्य को पूरे करने में। यह केवल 13 महीने का परिश्रम नहीं कहा जायेगा, क्योंकि इसकी रूप-रेखा तो बचपन में ही तय हो गयी थी!
भगत सिंह का भारत देश सदा ऋणी रहेगा। उनका योगदान व्यर्थ न जाये बस! शायद, इस कृति का उद्देश्य भी यही है! भगत सिंह की कहानी जनमानस तक जाये, इसलिए इस कृति की ‘नींव’ रखी गयी। दोहाकार अपने उद्देश्यों में सफल हों, यही शुभकामना है!
जिस परिवार में भगत सिंह का जन्म हुआ था, वह पूरी तरह से क्रांतिकारी विचारधाराओं से ओत-प्रोत था। इस परिवार पर अंग्रेज मुकदमे लादते, लेकिन यह परिवार हर बार अडिग रहता और किसी भी सूरत में राष्ट्र प्रेम के अभियान को थमने नहीं देता। मकसद केवल यह था कि कैसे अंग्रेजों को भारत से खदेड़ा जाये। उस क्रांतिकारी आँगन में क्रांतिकारी सोच के बीच भगत सिंह की परवरिश हुई। बचपन की बात थी, भगत सिंह की उम्र कोई तीन साल की होगी, पिता ने देखा कि भगत सिंह तिनके बो रहे हैं। पिता को आश्चर्य हुआ-यह क्या? उन्होंने भगत सिंह से पूछा:
कहा पिता ने,‘पुत्र यह, क्या करते हो काम?
क्या बोते हो खेत में, लेते नहीं विराम?’
आँखों में अद्भुत चमक और चेहरे पर उल्लास लिए भगत सिंह ने कहा था:
तब बालक ने जोश में, उत्तर दिया विशेष।
मैं बंदूकें बो रहा, हो स्वतंत्र निज देश।।
सोचिए, क्रांतिकारी पिता को कितनी खुशी हुई होगी। यह उत्तर सामान्य उत्तर नहीं था। क्रांति के रंग से रंगे इस परिवार पर अंग्र्रेजों ने खूब जुल्म ढाये थे। परिवार का हर चेहरा अंग्रेज को खटकता! बचपन में ही क्रांतिकारियों की जीवनी को भगत सिंह ने पढ़ना प्रारंभ किया। चौथी कक्षा में अध्ययन के दरम्यान पचास पुस्तकें पढ़ डाली। भगत सिंह अपने मित्रों से कहते बड़े होकर क्या करोगे? दोस्तों का जवाब रहता, खेती करूँगा, नौकरी करूँगा या फिर दुकानें खोलूँगा। लेकिन, भगत सिंह की अलग राय थी, जिसे दोहाकार ने सुंदर प्रस्तुति दी:
तब वे कहते जोश से, पूरे भाव सहेज।
मुझको करने काम वे, भाग जाँय अंग्रेज।।
ब्रिटिश हुकूमत सत्ता मद में चूर थी। शासन के खिलाफ जलियाँवाला बाग में देशभक्तों की भीड़ उमड़ पड़ी थी। इसी बीच, हृदयहीन जनरल डायर ने बाग के रास्ते को बंद कर गोली-बारी शुरू करवा दी थी। इस घटना ने भगत सिंह को उद्वेलित किया। उन्होंने निर्णय लिया कि कल जलियाँवाला बाग जाऊँगा। सोचिए, कितना खौफनाक मंजर होगा, फिर भी भगत सिंह जलियाँवाला गए, वहाँ की माटी को नमन किया और सहेज लिया उस माटी को एक शीशी में, तब उनकी उम्र मात्र 12 साल थी। गाँधी जी का असहयोग आंदोलन शुरू हो गया था। विदेशी वस्त्रों को फूँका जाने लगा था। गाँधी जी अहिंसा से देश को आजाद कराना चाहते थे, लेकिन भगत सिंह की सोच थी कि क्या अहिंसा से भारत को मुक्ति मिल सकती है? भगत सिंह की सोच को दोहाकार ने दोहे के माध्यम से प्रस्तुत करने की उम्दा कोशिश की:
उत्तर दें हम ईंट का, पत्थर से हर बार।
देश छोड़कर जायगी, तभी ब्रिटिश सरकार।।
पुत्र में क्रांति का रंग देखकर पिता किशन सिंह ने भगत सिंह को प्रोत्साहित किया और सही मार्गदर्शन दिया। नेशनल कॉलेज में पढ़ाई के दरम्यान भगत सिंह ने क्रांति विषयक किताबें पढ़ीं, क्योंकि उनकी मान्यता थी कि क्रांति से ही जग का अँधेरा मिट जायेगा। दादी जयकौर भगत को बहुत चाहती थीं और चाहती थीं कि भगत सिंह की शादी हो जाये। वैवाहिक प्रस्ताव भी भगत सिंह के लिए आये, लेकिन धुन के पक्के भगत सिंह शादी को तैयार नहीं हुए, उन्होंने पिता को पत्र लिखा। फिर, कानपुर चले गये और बाद में अलीगढ़़।
भगत बने बलवंत सिंह, पेपर छपे ‘प्रताप’।
संपादन की टीम में, करते मेहनत आप।।
दोहे में कहीं-कहीं मात्रा में गड़बड़ी है। फिर भी, दोहाकार ने दोहा को साधने की भरपूर कोशिश की है। ऊपर पंक्ति के चौथे चरण में 12 मात्रा हैं। शायद, दोहाकार की विवशता रही होगी वाक्य के अर्थ को पूर्ण करने के लिए! खैर, अंग्रेजों के पाँव को उखाड़ने के लिए भगत सिंह आंदोलन की धार को मजबूत करने की दिशा में जुट गये। सरकार की दमनकारी नीति का विरोध हुआ। अंग्रेजों तक बात पहुँची। भगत सिंह पर वारंट निकला, तब उनकी उम्र महज 17 साल थी। अंग्रेजों से भारत मुक्त हो, यह बात हमेशा भगत सिंह के दिल और दिमाग में होती, लेकिन इधर भारत में अपनों की एकता भी बिखर रही थी, सद्भाव खंडित हो रहे थे। इस पर उन्हें निराशा हुई। भगत सिंह ने थोड़े वक्त के लिए बाढ़ पीड़ितों की सेवा की। पुनः क्रांति मार्ग को चुना। उन्हें अर्थाभाव पूर्ति के लिए किसी भी सूरत में डकैती पसंद नहीं थी, लेकिन उनकी विवशता रही-
जब भी डाके में गए, मनवा रहा अधीर।
आतंकित जन देखकर, उठती मन में पीर।।
काकोरी में रेल डकैती हुई। अनगिनत क्रांतिकारियों की गिरफ्तारियाँ हुईं, अनगिनत भूमिगत हुए। भगत सिंह वेश बदल-बदलकर क्रांतिकारियों से मिलते-जुलते। अमृतसर से लाहौर पहुँचने के बाद भगत सिंह गिरफ्तार कर लिये गये। ब्रिटिश हुकूमत ने झूठे इल्जाम लगाये कि भगत सिंह ने मेले में बम फेंके। अदालत में भगत सिंह के तार्किक बयान पर उन्हें मुक्त किया गया। पाठकों को आश्चर्य होगा कि उस समय जमानत की राशि साठ हजार रुपये थी।
साइमन कमीशन के विरोध को लेकर समूचे हिन्दुस्तान में प्रदर्शन हुए। विरोध प्रदर्शन से बौखलाये अंग्रेजों ने लाठियाँ बरसायी। अंग्रेजी अफसर सांडर्स के वार से लाला लाजपत राय घायल हो गये, बाद में उनकी मौत हो गयी। समूचा देश शोक में डूब गया। राजगुरु, चन्द्रशेखर आजाद के साथ भगत सिंह ने सांडर्स को सबक सीखाने की रणनीति बनायी। सांडर्स की जान लेकर ही देशभक्तों को चैन मिला, तब अंग्रेजी सरकार बौखला गयी थी।
हत्या से सांडर्स की, बिलख उठी सरकार।
उसे लगा-उसकी हुई, बड़ी करारी हार।
सांडर्स की हत्या के बाद भगत सिंह कलकत्ता चले गये, फिर कुछ दिनों के बाद आगरा पहुँचे। देश को आजाद कराने के लिए जान को हाथ पर रखना होता है, कब देश कुर्बानी माँग ले? इसलिए, भगत सिंह ने बम बनाना सीखा। सरकार को होश में लाने के लिए क्रांतिकारियों ने असेम्बली पर बम फेंकने का निर्णय लिया। इसका उद्देश्य किसी को हताहत करना नही, बल्कि अंग्रेजी सरकार को नींद से जगाना था कि देश को ‘सुराज’ चाहिए। दोहाकार की इस पंक्ति से स्पष्ट है-
हो न हताहत एक भी, बम फेंके उस ठौर।
कुछ ऐसा विस्फोट हो, करे जमाना गौर।।
घटना के बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त भागे नहीं, क्योंकि भागना उनका उद्देश्य भी नहीं था। ऐसा कर देने से उनका अरमान भी पूरा नहीं हो पाता। उन्हें गिरफ्तार किया गया। घटना की जानकारी लोगों को हुई, तो देश जोश से भरा उठा। क्रांतिकारी यही चाहते भी थे कि युवा शक्ति जाग जाये।
ब्रिटिश हुकूमत जान ले, युवा शक्ति की चाह।
पर्वत भी जिसकी कभी, रोक न सकते राह।।
भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के साहसिक कारमानों से देश आह्लादित हो उठा। हाँ, दोनों की गिरफ्तारी से हर आँख आँसू से भर जरूर गये। दोहाकार ने उन पलों को दोहे के माध्यम से कहा-
भगत-दत्त के चित्र से, चमक रहे अख़बार।
हथकड़ियों में थे जड़े, जिसमें दोनों यार।।
गिरफ्तारी के बाद केस चला, न्यायालय में पेशी हुई। दोनों पर बड़े-बड़े अभियोग लगाये गये। ब्रिटिश हुकूमत षड्यंत्र रचती रही। भगत सिंह ने जब अदालत में बयान दिया, तो लोग चौंक पड़े। भगत सिंह ने दुहराया कि यह जालिम सरकार है, जिसकी नीतियाँ निर्मम है। सत्ता के लोभ में सरकार ने इंसानियत को तार-तार कर दिया है। भगत की बात दोहे में-
हम मन में रखते नहीं, किसी के प्रति विद्वेष।
सब मानव प्यारे हमें, सबसे बढ़कर देश।।
आगे-
फेंका बम जो सदन में, मकसद सिर्फ विरोध।
समझे वायसराय ना, बच्चा हमें अबोध।।
भगत सिंह के बयान अखबारों की सुखियाँ बनीं। फिर क्या था, युवा भड़क उठंे। सभी दिशाओं में इंकलाब जिंदाबाद के नारे गूँजने लगे। कल तक भगत सिंह की पहचान ‘आतंकी’ के तौर पर हो रही थी, वह पहचान अब ‘क्रांति दूत’ के तौर पर होने लगी। बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह को आजीवन कारावास की सजा सुनायी गयी। जेल में प्रताड़ना का खेल शुरू हो गया। भगत सिंह ने जेल में अमानवीय व्यवहार पर भूख हड़ताल शुरू कर दी। तब की स्थिति को दोहाकार ने दोहे के माध्यम से लिखा-
इस घटना से भर गए, दूजे दिन अखबार।
ब्रिटिश राज के प्रति हुई, थू-थू औ’ धिक्कार।।
सांडर्स हत्याकांड में भी क्रांतिकारियों की गिरफ्तारियाँ शुरू हुई। इधर, भगत सिंह ने पत्र भेजकर जेल की पोल खोली। भगत सिंह को लाहौर जेल भेजा गया। भूख हड़ताल की वजह से देह की हालत जर्जर हो गयी थी। चलने में भी असमर्थता थी या यूँ कहिए कि केवल जान बची थी। भगत सिंह की हालत देखकर देश में हाहाकार मच गया। समर्थन में अन्य जेल के साथियों ने भी हड़ताल शुरू कर दी। इधर, ब्रिटिश हुकूमत षड्यंत्र रचती रही। दोहाकार ने लिखा-
टूट जाय हर हाल में, ये चलती हड़ताल।
सब अधिकारी जेल के, बुनते पल-पल जाल।।
लेकिन, क्रांति कहाँ झुकने वाली। क्रांतिकारियों को जबरन दूध पिलाने की कोशिश की गयी, लेकिन अंग्रेजों को नाकामी हाथ लगी। हालाँकि यतिन्द्र नाथ दास की रिहाई एवं सम्मानजनक व्यवहार की शर्त पर हड़ताल तोड़ी गयी। लेकिन, शर्त के बाद भी सरकार पलट गयी, मक्कार जो ठहरी! फिर हड़ताल शुरू हुई। दास की मौत के बाद दिलों में रोष भर आया। हर तरफ जनता उबल गयी। शोक सभाएँ हुईं। हड़ताल से भगत सिंह की देह कमजोर हो गयी थी। फिर भी हाथों में हथकड़ी लगायी जाती। भगत ने विरोध किया, तो जेल अधीक्षक को और सख्ती से पेश आने की हिदायत दी गयी। ऐसी थी जालिम अंग्रेजी सरकार!
रुकी नहीं चलती रही, सतत भूख हड़ताल।
समाचार नित छप रहे, जनता भरे उबाल।।
चारों तरफ से दबाव बढ़ने लगा, तो सरकार को झुकना पड़ा। सरकार आखिर झुकती भी क्यों नहीं? जेल की व्यवस्था हड़ताल के बाद से बदल गयी। फिर, लाहौर षड्यंत्र कांड की सुनवाई भी शुरू हुई। शासन की चाह थी कि अभियुक्तों को कड़ी सजा मिले, इसलिए उसने गवाह पैदा करना शुरू कर दिया। क्रांतिकारियों द्वारा हथकड़ी लगाये जाने का विरोध हुआ, तो सरकार क्रूर हो गयी। मारा, पीटा गया। सरकार की बदनामी हुई। सरकार और क्रूर हो गयी तथा ट्रिब्यूनल गठित कर दी। भगत सिंह सत्ता की चाह को भाँप गये थे। उन्होंने साथियों को जो पैगाम दिया, उसे दोहाकार ने सुंदर ढंग से पिरोया है:
सज़ा भले जो भी मिले, हँसकर लेंगे भोग।
नहीं करेंगे साथियो, सत्ता का सहयोग।।
आगे-
इंकलाब का स्वर उठा, जज गुस्से से लाल।
नारे ज़िंदाबाद के, आया तेज उबाल।।
अंग्रेजों का फरमान क्रांतिकारियों के विरुद्ध था। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी की सजा सुनायी गयी। जनता तक यह बात पहुँची, तो बवाल मच गया। हड़तालें शुरू हुईं। भगत सिंह के पिता ने वायसराय को जब पत्र लिखा, तो भगत दुखी हो गये। उनके दिल में आग उठ गयी। दोहाकार की सुंदर प्रस्तुति:
पूज्य पिताजी को लिखा, व्यर्थ न हो बलिदान।
सिद्धांतों से है नहीं, सुनें-कीमती जान।।
आगे-
मिला पिता को पत्र जब, समझ गए सब सार।
भगत सिंह के पत्र से, सजे कई अखबार।।
भगत सिंह चाहते थे कि फाँसी हो, ताकि देश में क्रांति जगे। फाँसी की सजा सुनाये जाने के बाद भगत सिंह जेल में ही पठन में व्यस्त हो गये। अंतिम भेंट को जेल में पूरा परिवार पहुँचा। सोचिए, क्या नजारा रहा होगा!
हर इक परिजन का वहाँ, बहुत बुरा था हाल।
किंतु भगत खुश थे बहुत, दिखे न तनिक मलाल।।
देश नहीं चाहता था कि क्रांतिकारियों को फाँसी की सजा हो! फाँसी की सजा को रोकने के लिए देश में शोर मचा। शायद, दया याचिका दाखिल की जाये, तो सजा में ढील मिल सकती है। ऐसी सोच निपुण वकील प्राणनाथ की थी। ऐसी खबर पाकर राजगुरु भड़क गये, सुखदेव के खून उबल गये। भगत सिंह ने सरकार को लिखा-किसी भी सूरत में हमारी सजा कम न हो!
नहीं दया की याचना, किंतु करें स्वीकार।
फाँसी के स्थान पर, दें गोली से मार।।
भगत सिंह में देश भक्ति का जज्बा कुट-कुटकर भरा हुआ था, जब उनसे उनकी अंतिम इच्छा पूछी गयी, तो भगत सिंह का जवाब था कि भारत माँ की गोद में ही पुनः जन्म लूँ और सेवा करूँ। हँसते-हँसते फाँसी पर झुलने की तमन्ना है। ऐसा इसलिए:
इंकलाब की आग तब, धधकेगी हर हाल।
मिट जाएगा इस तरह, ब्रिटिश-राज का जाल।।
जिस दिन भगत सिंह को फाँसी की सजा दी जानी थी, उस दिन ‘वो’ लेनिन को पढ़ रहे थे। जेल अधिकारी ने जब कहा-तैयार हो जाओ, फाँसी का वक्त आ गया है। तब, भगत सिंह का चेहरा खिल उठा था, यह देखकर अधिकारी सन्न हो गये थे। राजगुरु और सुखदेव भी साथ हो आये। खुशी से तीनों गले मिले और चल दिये फाँसी के तख्ते को चूमने। दोहाकार ने सुंदर दोहे रचे:
मस्ती से गाते चले, भारत माँ के लाल।
क्रांति गीत की गूँज थी, और चमकते भाल।।
आगे-
चढ़ फाँसी के मंच पर, इंकलाब उद्घोष।
सँग-सँग ज़िंदाबाद भी, अद्भुत दिखता जोश।।
दोहाकार अशोक अंजम द्वारा रचित खंडकाव्य ‘मैं बन्दूकें बो रहा’ सच में अद्भुत कृति है! दोहा विधा में खंड काव्य की रचना बड़ी बात है। इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसे पढ़ने में मन ऊबता नहीं है। प्रवाह और कथ्य बेमिसाल है। ऐसा लग रहा है कि मानो दोहे के साथ-साथ चित्र भी मानस पटल पर उभर आ रहे हैं, पाठक घटनाक्रम के साथ हों । मतलब, साक्षी!
सच में, भगत सिंह आदर्श हैं नयी पीढ़ी के लिए। नयी पीढ़ी को चाहिए भगत सिंह को पढ़ना! मौत जहाँ डराती है, वहाँ भगत सिंह इसे अपना बनाना चाहते थे। ताकि क्रांति की लौ किसी भी कीमत पर शांत न हो!
कौन चुका सकता भला, बलिदानों का मोल।
एक लहर जो क्रांति की, गए दिलों में घोल।।
नव पीढ़ी समझे अगर, क्या होता बलिदान।
चमके नव आभा लिए , अपना हिंदुस्तान।।