वर्तमान समय में जब दोहों का निरंतर सृजन हो रहा है या यूँ कहें विभिन्न फेसबुक व व्हाट्सेप समूहों में सृजन की प्रोडक्टिविटी तेज़ हो गयी है में क्वालिटी (गुणवत्ता) का ह्रास भी उतनी ही तेजी से हुआ है। दोहा तेरह और ग्यारह के मात्रा समूह में बँधे एक साधारण वाक्य की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है।
दोहा छंद की विशेषता हमेशा से उसकी मारक क्षमता उसका नुकीलापन, उसका अर्थ विस्तार रही है। बिहारी के दोहों के लिये कहा गया -“देखन में छोटन लगें घाव करें गम्भीर”, दोहों का मानक वाक्य साबित हुआ है। दोहा सपाटबयानी तो नहीं हो सकता जैसे ग़ज़ल के शेरों के लिये शेरियत आवश्यक है वैसे ही दोहों के लिये उसका नुकीलापन जिसे मैं अपने शब्द में दोहियत कहती हूँ, जो किसी विस्फोट की तरह मन और मस्तिष्क पर गहरा तथा दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ता हो, आवश्यक है।
मुझे लगता है कम मगर गुणवत्ता से भरपूर दोहे प्रस्तुत करना ही किसी संग्रह को अधिक महत्वपूर्ण बना सकता है सात सौ या हज़ार कमज़ोर दोहों को प्रस्तुत करने की अपेक्षा।
किसी भी विधा के चिरकालीन होने के लिये आवश्यक है उसका समकालीनता बनाये रखना। आज दोहा विधा भी अपने में विषयगत व भाषागत समकालीनता को समाहित करके निरंतर फल-फूल रही है। ऐसे ही समकालीन दोहों का संग्रह है ‘एक कटोरी धूप’। इस संग्रह में राहुल शिवाय जी द्वारा रचित कई विषयों या संदर्भों पर आधारित दोहे हैं जिन्हें विस्तृत आयाम प्राप्त हुआ है। ये दोहे अपनी समकालीनता के साथ चिरकालीनता बनाये रखने में पूर्णत: समर्थ हैं।
राहुल जी के दोहों में प्रतिरोध का स्वर मुखर है। इनके दोहों के तेवर और भंगिमा प्रभाव छोड़ते हैं। बेराज़गारी, तंत्र के छद्म का विरोध, उत्तरआधुनिकता, भुखमरी, ग़रीबी, किसानों व मज़दूरों की व्यथा-कथा, प्रेम, समरसता आदि विभिन्न विषयों पर इन्होंने पर्याप्त दोहे कहे हैं। इनकी नवीन भाषा शैली, अनुभूति की ताज़गी, अछूते बिम्ब और अनूठा अंदाज़-ए-बयाँ इन्हें औरों से भिन्न करता है।
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राहुल जी के दोहे आमजन का स्वर मुखर करते हैं। राजनैतिक व आर्थिक विसंगतियों के साथ दो-दो हाथ बड़ी मुखरता से करते नज़र आते हैं।
दक्षिण क्या दक्षिण रहा? रहा वाम का क्या वाम?
मैं पहले भी आम था, मैं अब भी हूँ आम॥
भूख, ग़रीबी, बेबसी, पीड़ा औ संत्रास।
यही आज उपलब्धियाँ, कृषक-जनों के पास॥
जैसे तपती रेत पर, बूँद पड़ें दो-चार।
रोज़गार को बाँटती, वैसे ही सरकार॥
आग लगा देती तुरत, बिन माचिस बिन तेल।
राजनीति जब खेलती, जुमलों वाला खेल॥
नोंच रही सुख के सपन, पूँजीवादी चील।
कोई आज ग़रीब की, सुनता नहीं अपील॥
जनमत की खुरपी बिकी, हुई भोथरी धार।
तब तो संसद में उगे, इतने खरपतवार॥
नहीं कर सकीं उँगलियाँ, मुट्ठी-सा अहसास।
इस कारण ही आजतक, सीमित रहा विकास॥
एक गाँव में हो गये, कितने आज प्रधान।
मुखिया, मुखिया पति सहित, चार-चार संतान॥
राहुल जी समाज के मध्यम तबके की प्रमुख समस्याओं व सरकार के रवैये पर मारक दोहे कहते नज़र आते हैं, समस्याओं को सामने रखने के साथ-साथ समाधान तलाशते भी नज़र आते हैं।
विकास के नाम पर उत्तर आधुनिकता ने किस प्रकार बाज़ार सजाया गया है उस पर भी दृष्टि रखते हैं।
पगडंडी, चौपाल, वट, रहट, कुआँ, कंदील।
एक शहर, इस गाँव का, गया सभी कुछ लील॥
महानगर ने जब कभी, फैलाई है देह।
कंकरीट-सा हो गया, मिट्टी-तन का नेह॥
आज बदलते परिवेश व आचरण के कारण पुरानी पीढ़ी व नयी पीढ़ी के बीच बढ़ती दूरियों, रिश्तों के स्वार्थ, कड़वाहट को भी दोहों में उकेरा है।
दादा-दादी क्यों नहीं, हों मन से बीमार।
पोता-पोती हो गये, अब दिन से त्योहार॥
बरगद जड़ें समेटकर, बोल रहा हे नाथ!
गमले में ही रोप दे, मुझे फूल के साथ॥
दया, प्रेम, सद्भाव की, बंजर हुई ज़मीन।
नई सदी में हो गया, मानव सिर्फ़ मशीन॥
संबंधों का भूलकर, मैं औ तुम बेसिक्स।
एक-दूसरे का फ़क़त, बढ़ा रहे ‘लाइक्स’॥
ऐसा नहीं है कि राहुल जी ने सिर्फ़ सामाजिक विसंगतियों पर ही दोहों कहे हैं। इनके दोहों में प्रकृति और शृंगार का मनोहर पक्ष भी उतनी ही गहराई से अभिव्यक्त हुआ है। सुव्यवस्थित शिल्प के साथ शब्दों का सुंदर व मोहक संयोजन माधुर्य और कोमलता के साथ सांकेतिक ढंग से अर्थात् बड़ी हुनरमंदी से अस्पष्टता को स्पष्टता प्रदान करता है।
धुंध भरा घूँघट हटा, निखरा भू का रूप।
बिखराई जब सूर्य ने, एक कटोरी धूप॥
देख प्रिया की झूमती, सरसों वाली देह।
कभी बना मन से भ्रमर, कभी पवन का नेह॥
रचनाकार दो स्थिति में सृजन करता है स्वानुभूति व सहानुभूति। सहानुभूति का उद्गम संवेदना में निहित है। कुछ लोगों का मानना है कि जो भुक्ता होता है वही पीड़ा या अनुभूति का सटीक वर्णन कर पाता है किन्तु एक समर्थ रचनाकार के साथ ऐसा नहीं है। नारी विमर्श जैसे संवेदनशील विषय पर राहुल जी अपनी पैनी संवेदनशील दृष्टि से अनुभूतित होकर विविध दृष्टिकोणों पर अपनी क़लम चलाते दृष्टिगत हुये हैं। इनके दोहे बहुरंगी व बहुआयामी होने के साथ- साथ गहन चिंतन से व्याप्त है जो एक सटीक दृष्टिकोण सामने रखते हैं। नारी विमर्श के विविध आयामों पर दोहे लिखे हैं देखें:
शायद उसको बात यह, हरपल रही कचोट।
लील गई यह ज़िन्दगी, इस परदे की ओट॥
अपने सारे स्वप्न वह, भूल गई नादान।
बोली सबसे है बड़ा, बापू का सम्मान॥
पिता, भ्रात, पति, पुत्र के, रही सदा अनरूप।
नारी सागर-मन लिये, बनी रह गई कूप॥
देकर लक्ष्मी नाम फिर, लेते सबकुछ छीन।
इस कारण सबसे सबल, रही हमेशा दीन॥
आकर्षक सब तितलियाँ, रहना यहाँ सतर्क।
चकाचौंध का यह शहर, है रिश्तों का नर्क॥
नई सदी ने प्रेम का, देखा कैसा ख़्वाब।
मुखड़े पर इनकार के, फेंक दिया तेज़ाब॥
इस समाज की सोच का, बीतेगा कब पूस।
औरत होती है नहीं, डायन या मनहूस॥
राहुल शिवाय जी के दोहों में साहित्यिक और सामाजिक दृष्टि का सुखद मिलन है। ये मुहावरे की सांकेतिकता, बिम्बात्मकता, सूक्तिमयता और प्रवाह के संरचनागत कौशल से अपने दोहों को प्रभावशाली बना देते हैं।
पुराने कथा चरित्रों, मिथकों का प्रयोग कर राहुल जी ने बेहतरीन दोहे कहे हैं। यहाँ मिथकों का प्रयोग तो हुआ है किंतु दोहों की समकालीनता, प्रासंगिकता भी बनाये रखी है।–
एक बार इस बात पर, सोचो हिन्दुस्तान।
सत्तर वर्षों बाद भी, प्रासंगिक गोदान॥
प्रेमचंद आ देखिए, कैसे हैं हालात।
अब तक कम्बल के बिना, कटे पूस की रात॥
प्रेम हो गया आजकल, सिर्फ़ देह का गेम।
मत ढूँढो ‘राहुल’ यहाँ, लहनासिंह का प्रेम॥
मेरे मालिक भूख को, होता नहीं बुखार।
यह कह रामू हो गया, खटने को तैयार॥
विभिन्न विषयों पर लिखे इनके दोहे कथ्य और तथ्य दोनों दृष्टि से अनुभव की आँच पर तपे प्रतीत होते हैं। राहुल जी स्वभाव से घुमक्कड़ प्रवृत्ति के हैं यह बात किसी से छिपी नहीं है और एक घुमक्कड़ के लिये यह परम आवश्यक है कि वह स्वयं को हर परिस्थिति में ढालने को सहज रहे। उनके व्यक्तित्व को चरितार्थ करता उन्हीं का दोहा-
मुझ यायावर के लिये, प्यारा है हर ठाँव।
चाहे मुझको धूप दे, या फिर दे वह छाँव॥
व्याकरण की दृष्टि से भी दोहे पूर्णत: मँजे हुए हैं। कुछ दोहों के कथ्य में आदर्शवाद थोड़ा हावी है पर दोहा विधा तो प्राचीनकाल से ही नीति व उपदेश की वाहक रही ही है। इस बेहतरीन दोहा संग्रह हेतु राहुल जी को बहुत शुभकामनायें।