शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरने वालों की यही बाकी निशां होगा।
(जगदंबा प्रसाद मिश्र “हितैषी”, साभार: कविता कोश )
निस्वार्थ भाव से अपनी मिट्टी की रक्षा में खुद को कुर्बान करने वाले शहीद कहलाते हैं। इनका स्थान देश में सर्वोच्च होता है क्योंकि इन्हीं के बलिदान से चमन में बहार, अमन और चैन रहता है। शहीद-ए-आजम नाम से मशहूर भारतीय स्वतंत्रता सेनानी एवं क्रांतिवीर भगत सिंह देश के वे ध्रुवतारे हैं जो देदीप्यमान नक्षत्र की तरह भारतीयों के मानसपटल पर वर्षों से दमक रहे हैं। उनके विचार,संघर्ष, गाथा,बलिदान,तप,संयम आदि से प्रेरित होकर देश के युवा चलना सीख रहे हैं, देशप्रेम की अविरल गंगा बहा रहे हैं तथा कुछ कर गुजरने का जुनून पाल रहे हैं। भगत सिंह युवाओं के सिरमौर शुरू से रहे हैं, उनका गीत “रंग दे बसंती चोला” जब सुनाई पड़ता है तब पूरी फिजा देशभक्ति के रंग में रंग जाती है। उनका जीवन अनुकरणीय है, आदर्श आत्मसात करने वाला है तथा उनके विचार पठनीय हैं। भागदौड़ की जिंदगी में भागते युवा और नागरिक पुराने मनीषियों को भूलने लगे हैं, तब उन्हें पुरानी विरासत, बलिदान,संघर्ष आदि याद दिलाने के उद्देश्य से कवि “अशोक अंजुम” भगत सिंह के जीवन पर आधारित खंडकाव्य लिखते हैं। पुस्तक “मैं बन्दूकें बो रहा” दोहा जैसे छोटे छंद में लिखा गया है जो इसकी खूबसूरती भी है। कवि विश्व के सामने भगतसिंह का जीवन रखकर जिजीविषा तथा संघर्ष की महत्ता को प्रदर्शित करने का भागीरथ प्रयास करते हैं:
नव पीढ़ी जाने कथा, समझे उच्चादर्श।
दिशा किस तरह विश्व को, देते हैं संघर्ष।।
कुल 505 दोहों में भगत सिंह का संपूर्ण जीवन, संघर्ष, विचार, फांसी, क्रांतिकारी तेवर आदि का सुंदर वर्णन इस पुस्तक में मिल जाती है। आप पढ़ने बैठ जाओ तो एक बैठक में यह खत्म हो जायेगी। इसकी सरल भाषा तथा कथ्य के अनुसार शिल्प का सुंदर प्रयोग आपको शुरू से अंत तक बांधे रखेगी और आप भगत सिंह को मानसपटल पर महसूस करने लगेंगे। पहले बात करते हैं इस पुस्तक के भाव पक्ष की। इस पुस्तक में उनके जीवन के इतिहास को कुल 15 भाग में बांटा गया है, जिसमें उनके जीवन का क्रमिक विकास चित्रित है। लेखक परिस्थिति के अनुसार पात्रों के दैहिक एवं भौतिक क्रियाकलापों का वर्णन करने में सफल हुए हैं। जब भगत सिंह बचपन में अपने पिता के साथ खेत जाते हैं तो वहाँ देश की स्थिति के बारे में अपने पिता एवं ताऊ से सुनते हैं। देश के लिए कुछ कर गुजरने की लालसा उनके अंदर तभी जगती है। अपने हाथों से खेत में कुछ बोते देख, पिता उनसे पूछते हैं क्या कर रहे हो? तो बालक कहता है- “मैं बन्दूकें बो रहा हूँ”। कवि इस परिस्थिति का वर्णन करने तथा घटनाओं का चित्रण करने के लिए “संवाद शैली” तथा “वस्तुवर्णन पद्धति” का सुंदर प्रयोग करते हैं। दो पत्रों के बीच तनाव उत्पन्न कर के दोहे जैसे छंद में नाटकीयता उत्पन्न करने की सफल कोशिश की गई है। बालक को काम करते देख उनके चरित्र, क्रियाकलाप तथा अहोभाव का चित्रण देखें:
आँखों में अद्भुत चमक, चेहरे पर उल्लास।
लगता था वह कर रहा, काम अनूठा खास।।
संवाद शैली का एक सुंदर उदाहरण देखें:
कहा पिता ने-‘पुत्र यह, क्या करते हो काम।
क्या बोते हो खेत में, लेते नहीं विराम?
तब बालक ने जोश में, उत्तर दिया विशेष।
मैं बंदूकें बो रहा, हो स्वतंत्र निज देश।।
भगत सिंह को क्रांतिकारी विचार तथा हिम्मत उनके पिता से विरासत में मिली थी। उनके पिता भी देश की स्वतंत्रता आंदोलन में उस समय योगदान दे रहे थे। जलियावाला बाग हत्याकांड तथा असहयोग आंदोलन का भगत सिंह के जीवन पर गहरा असर पड़ा था। उस समय हर पिता अपने बेटे से इच्छा रखता था कि उसका बेटा देश की आज़ादी में अपना योगदान दें। भगत सिंह के पिता के द्वारा कवि संपूर्ण भारतीय किसान पिता की इच्छा, उम्मीद और सपने का चित्रण करते हैं:
क्रांति-मार्ग पर तब तलक, पुत्र चले निर्बाध।
देश जब तलक ना चखे, स्वतंत्रता का स्वाद।।
भले ही भगत के जीवन पर उनके पिता का प्रभाव हो लेकिन दोनों के सोचने, समझने की शक्ति तथा समाज को देखने की दृष्टि अलग-अलग थी। कवि उस समय के सच के साथ तथा दो पीढ़ियों के बीच विचारों के अंतर की तह तक पहुंचने की कोशिश करता है:
दृष्टि पिता की थी यही, दुश्मन को दो चोट।
किंतु स्वयं बचकर रहो, फेको ऐसी गोट।।
और भगत ये मानते, शत्रु करें यौं वार।
घाव लगे मन- देह पर, बन जाएँ हथियार।।
भगत सिंह क्रांतिकारी दल को चलाने के लिए किये जाने वाले- चोरी, डकैती,अपहरण,लूटपाट आदि से क्षुब्ध थे। उनकी इच्छा थी कि खुद के मेहनत से यह दल चलाया जाए। आम आदमी को पीड़ा देकर उन्हें और क्यों सताया जाए। उनकी नीति केवल अंग्रेज़ी सरकार को हिलाना था, गरीबी का विरोध करना नहीं। वह कुछ ऐसा काम करना चाहते थे जिससे सोई हुई जनता के अंदर जागृति आए और वह एकत्रित होकर अंग्रेजो के खिलाफ हल्ला बोल दे:
हो न हताहत एक भी, बम फेंके उस ठौर।
कुछ ऐसा विस्फोट हो, करं जमाना गौर।।
भगत चाहते क्रांति का, चहुँदिश हो परिवेश।
बस ये ही उद्देश्य था, जागे सारा देश।।
न्यायालय में जब न्यायाधीश भगत सिंह से पूछता है कि तुमने खाली बैंचो पर ही बम क्यों फेंका ? तब भगत सिंह उत्तर देते हैं:
मेहनतकश, साधन-रहित, जो सहते धिक्कार।
पृथ्वी पर उनको मिले, जीने का अधिकार।।
भगत सिंह के इस कथन से यह जाहिर होता है कि उनकी दृष्टि विश्वव्यापी थी और वे पूरे विश्व के किसान, मजदूर, गरीब, स्त्री आदि जो वर्षों से शोषित होते आए हैं उनके लिए भी सहानुभूति रखते थे तथा उत्थान की चेष्टा करते थे। इनकी दृष्टि विश्वव्यापी एवं मानवतावादी थी जिसे कवि बखूबी चित्रित किया है।
किसी के चरित्र पर काव्य लिखना और वो भी उनके बारे में जो देश के कंठहार हों- बड़ा कठिन काम है। कवि को इसके लिए उस चरित्र को आत्मसात कर, उस युग को जीना पड़ता है, उस समय की पीड़ा को महसूस करनी पड़ती है। दोहाकार गुलाम भारत की स्थिति, वातावरण तथा मानसिकता को पकड़ते हैं और उसे शब्दबद्ध करने में सफल भी हुए हैं। गुलाम भारत की गुलाम मानसिकता का चित्रण देखें:
जनता भारत देश की, रचती नित नव स्वांग।
स्वयं खींचते जन सभी, एक दूजे की टांग।।
गुलामी का सबसे प्रमुख कारण एकता का अभाव था। उस समय देश में दो तरह की गुलामी थी- एक अंग्रेजों की तथा दूसरी सामंतों की। अंग्रेज हमें सामंतों के द्वारा ही शोषण करवाया करते थे। कोई आवाज उठाने वाला नहीं था समाज में। एकता के अभाव के साथ साथ, फूट डालो शासन करो की नीति के कारण हम उस चक्रव्यूह में और भी गहरे फँसते चले गये-
बिखर रही थी एकता, खंडित था सद्भाव।
देशप्रेम का दीखता, जन में विकट अभाव।।
ऐसे में ज़रूरी था लोगों में जागृति लाने की, उन्हें शिक्षित करने की। सबसे पहले हाशिए के समाज तथा शोषित वर्गों में चेतना जगाने के लिए क्रांतिकारी-दल ढेरों काम करते हैं। इस दल में स्त्रियों ने भी काफी मदद की थी। कवि शची, दुर्गा भाभी आदि पत्रों के सहारे स्वतंत्रता आंदोलन में स्त्रियों द्वारा दिए गए अभूतपूर्व योगदान को याद करते हैं:
दुर्गा भाभी धन्य हैं, कर साहस का काम।
क्रांतिकारियों में बनीं, एक प्रतिष्ठित नाम।।
भगत सिंह लोगों में जागृति लाने के लिए बहुत सारे घटनाओं को अंजाम देते हैं जैसे- सांडर्स की हत्या, खाली बैंचो पर बम फेकना, गिरफ्तारी, पर्चे बांटना, फांसी पर चढ़ना आदि। वर्षों की गुलामी के बाद जनता की रूढ़ मानसिकता को वो ललकारते भी हैं:
जीना वह धिक्कार है, बन कर रहे गुलाम।
मृत्यु भली इससे बहुत, लगे देश के काम।।
वे अंग्रेजी सत्ता की दोहरीनीति से लोगों को रूबरू कराते हैं तथा उनके खिलाफ आक्रोश भरने की कोशिश भी करते हैं:
दूध पिलाया शक्ति से, करके नली प्रयोग।
किंतु उलटने की कला, में माहिर वे लोग।।
विचार शाश्वत है, वह कभी नहीं मरता। इंसान तो आते जाते रहते हैं लेकिन जब तक मानव में संवेदना बची है तब तक कोई भी विचार नहीं मर सकता। भगत सिंह लोगों को अपने विचार, कारनामे, सोच आदि से रूबरू कराते हैं तथा हर युवा को वैसा ही बनने की सलाह देते हैं:
हत्या हो इंसान की, काम सहज आसान।
हत्या किंतु विचार की, समझो मत आसान।।
एक दोहा और देखें-
है मनुष्यता की ज़िन्दगी, पावन समझें लोग।
और मनुज की दासता, मानवता का रोग।।
उनकी हिंसक नीति पर जब लोग सवाल करने लगे तब भगत सिंह उन्हें जवाब देते हैं। वो कहते हैं कि मेरा उद्देश्य मानवता को खत्म करना नहीं है बल्कि भारत की आज़ादी है:
हम मन में रखते नहीं, किसी के प्रति विद्वेष।
सब मानव प्यारे हमें, सबसे बढ़कर देश।।
“मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बिल्कुल साफ हो जाती है। जन्मभर की घटनाएँ एक-एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों का रंग साफ होते हैं, समय की धुंध बिल्कुल उन पर से हट जाती है।” (उसने कहा था: चंद्रधर शर्मा गुलेरी) वाकई में मौत का एहसास तो लोगों को पहले ही हो जाता है। मृत्यु से पहले वह अपने प्रिय से मिलना भी चाहता है तथा पुराने दिन को याद करके आँसू भी बहाना चाहता है। मृत्यु का एहसास भगत सिंह को भी पहले हो गया था, जब दत्त को उनसे मिलाया जाता है तब वो बचपन के दिनों को याद कर फूट-फूट कर रोते भी हैं और बरसों के बाद मिलने से उनके अंदर प्रसन्नता का भाव भी जागृत होता है। कवि उस समय का करुण एवं हृदय विदारक दृश्यों का सचित्र चित्रण करते हैं:
इक दूजे से लिपटकर, दोनों भाव-विभोर।
थिरक उठीं तब बेड़ियाँ, हथकड़ियों का शोर।।
भगत सिंह की मृत्यु के बाद देश में क्रांति की लहर दौड़ गई। हर युवा देश के लिए कुर्बान होना चाह रहा था, सब जगह अंग्रेजों के खिलाफ प्रदर्शन होने लगे थे, गुलाम भारत की चेतना और एकता दोनों वापस संगठित होने लगी थी- भगत सिंह की इच्छा भी यही थी। कवि भगत सिंह की मृत्यु के बाद के देश की स्थिति का सफलतापूर्वक वर्णन करते हैं:
उठा देश में हर तरफ, आंदोलन का ज्वार।
चहुंदिस बढ़ते ताप से, खीझ रही सरकार।।
बुझे जिंदगी का दिया, सुलगे क्रांति मशाल।
एक मृत्यु से देश के, जगे हजारों लाल।।
हर युवा की चाहत देश की आज़ादी थी-
ब्रिटिश-राज से मुक्ति हो, बढ़े देश की शान।
भले क्रांति के मार्ग में, हों अनगिन बलिदान।।
इस पुस्तक का शिल्प हमें खासा प्रभावित करता है। सरल शब्दों का प्रयोग इस पुस्तक को आमजन के काफी करीब ला दिया है। भाषा प्रभावपूर्ण, प्रांजल, तथा लोक के करीब है।
अभिधा में अधिकांश बात कही गई हैं। अंग्रेजी, तत्सम तथा उर्दू-फ़ारसी के शब्दों का प्रयोग भावों के अनुकूल किया गया है। अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग देखें:
सबक सिखाऊं हर तरह, दिल में उठा करंट।
गिरफ्तार हो भगत सिंह,निकला तब वारंट।
मुहावरे एवं लोकोक्तियों का प्रयोग इनकी भाषा को लोकप्रिय तथा समय के अनुकूल बनाती है। इनकी भाषा काल तथा उसकी परिस्थितियों का निर्वहन करने में सफल है:
होनहार बिरबान के, होत चिकने पात।
बचपन से ही थे अलग, उस शिशु के जज्बात।।
परिस्थिति तथा घटना के अनुसार वस्तु का वर्णन कुशलतापूर्वक किया गया है। विषयवस्तु तथा घटना में इतनी जीवंतता है कि वो मानो आँखों के सामने घटित हो रहे हों। जलियावाला बाग हत्याकांड के खूनी संघर्ष का सजीव वर्णन देखें:
इधर भरी बन्दूक थीं, उधर निहत्थी भीड़।
चीख-पुकारें मच गयीं, लगे उजड़ने नीड़।।
अफरातफरी हर तरफ, खून -खून चहुँ ओर।
जिधर नज़र जाती उधर, मरा-मरा का शोर।।
हर दोहा खुद में परिपूर्ण है और वह मानो एक कथा को समाहार किए हुए है। चरित्र के साथ-साथ उनके गुणों का निर्वहन भी इनके दोहों में देखने को मिलता है:
अद्भुत संयम, शिष्टता और बहुत शालीन।
शांत, संतुलित भगत सिंह, वक्ता प्रखर जहीन।।
अंततः कहा जा सकता है कि पुस्तक “मैं बन्दूकें बो रहा” शहीद-ए-आजम के जीवन, संघर्ष, बलिदान तथा उस समय के सच को बयां करने वाली है। कवि का उद्देश्य देश के उस युवा पीढ़ी को जागृत करना है जो चंद स्वार्थ के लिए देश से गद्दारी करने लगे हैं और अपने महान मनीषियों के बलिदान और आदर्शों को झुठला रहे हैं। कवि की चिंता जायज है:
युवा आज का जी रहा, लेकर कैसे रोग।
उफ्! इसके आदर्श हैं, ऐसे-वैसे लोग।।