अशोक ‘अंजुम’ समकालीन साहित्य जगत को प्राप्त वागीश्वरी का ऐसा वरदान है जो अपने अभिधान को भी अमिधा-लक्षणा और व्यंजना की अर्थवत्ता से वलयित कर देता है। अशोक शब्द संस्कृत का है जबकि अंजुम अरबी का। अशोक शब्द की अपनी सांस्कृतिक महत्ता है और अंजुम का अपना वैशिष्ट्य है। दोनों का संगम जिस तीर्थ व्यक्तित्व का निर्माण करता है उसके पास गीतकार का स्पन्दन है, राष्ट्रव्रती का मातृवन्दन है, व्यंग्यकार का तीक्ष्ण विश्लेषण है और है एक यशस्वी सम्पादक का अद्भुत साहित्य-संयोजन। हमारे यहाँ माना जाता है कि जिन वृक्षों को पतझर कमी पराभूत नहीं कर पाता और जो प्रणय के देवता के पंचशरों में परिगणित हैं अशोक उनमें से एक है। उसे साधना की साध्वी सीता को दिन में संरक्षण देने वाला मानकर सर्वदा पूज्य घोषित किया गया है। इसी प्रकार अरबी का अंजुम अँधेरी रात में रोशनी के हस्ताक्षर को रूपायित करने वाला दीप्तिमन्त नक्षत्र है। धरती पर अशोक और आकाश में अंजुम, धूप में छाया देने वाला अशोक और अमावस में ज्योति के मंगलाचरण जैसा अंजुम हिन्दी की सामर्थ्य का उद्घोष भी है और एक अनवतरत साधनारत तपस्वी की कान्ति का जयघोष भी।
‘मैं बन्दूकें बो रहा’ अशोक अंजुम का अभिनव साहित्यिक अवदान है जो राष्ट्रानुराग के मूर्त रूप सरदार भगतसिंह के जीवन पर आधारित एक खण्डकाव्य है। हिन्दी के समकालीन गीति-जगत में संभवतः ऐसा पहली बार हुआ है जब किसी प्रतिभाशाली कवि ने एक सम्पूर्ण खण्डकाव्य हिन्दी के जातीय छन्द दोहे में रचकर सहृदयों के सामने प्रस्तुत किया हो। वीर गाथाकाल में वह चन्दबरदाई का एक दोहा ही था जिसके प्रभाव से आविष्ट होकर चक्षुविहीन पृथ्वीराज ने आततायी सुल्तान को शब्दवेधी बाण से मार दिया था। यह दोहा ही है जो भक्तिकाल की समस्त दिव्यता को महामन्त्र गायत्री के चौबीस अक्षरों की तरह अपनी चौबीस मात्राओं में समेटे है। रीतिकाल में बिहारी के एक दोहे ने मी कर्तव्यच्युत हो रहे महाराज जयसिंह को अपनी भूल के प्रति सचेत किया था और आधुनिक काल के पुरोधा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने पाँच वर्ष की उम्र में एक दोहे की रचना कर हिन्दी साहित्य सागर के सबसे बड़े तारक के आगमन की उद्घोषणा कर दी थी। दोहे की मात्राएँ हमारी तन्मात्राओं में समाहित हो गई हैं और उसकी अर्थध्वनि इमारी अन्तश्चेतना के तारों को अनायास झंकृत कर देती है। अशोक अंजुम ने अधुनातन घड़ी में राष्ट्रभाव के जागरण और आदर्श के व्याकरण को कविता का संस्करण देने के लिये उचित ही दोहे को उपकरण बनाया है और कविता के कलेवर में एक सम्प्रेरक जीवन-गाथा का विन्यास कर सके हैं।
पुस्तक का शीर्षक एक अति भावतरल पृष्ठभूमि से उभरा है। भगतसिंह जैसे जन्म से ही आजादी के लिए संघर्ष करने का विचार घुट्टी में पीते आ रहे थे। बाल्यावस्था में वह एक दिन अपने पिताजी तथा उनके मित्र के साथ अपने खेत देखने गये और वहाँ खेल-खेल में ही एक गंभीर भावभूमि का सृजन करने लगे। उनके पिता के सहज प्रश्न और उनके ज्वलन्त उत्तर का चित्रण कवि ने बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है:
होनहार बिरवान के, होत चीकने पात।
बचपन से ही थे अलग, उस शिशु के ज़ज्बात।।
उन दोनों का था तभी, गया उस तरफ ध्यान।
जिसे देख होने लगे, वे दोनों हैरान।।
बच्चा तिनके बो रहा, उमर वर्ष थी तीन।
तिनकों से भरने लगी खाली पड़ी ज़मीन।।
आँखों में अद्मुत चमक, चेहरे पर उल्लास।
लगता था वह कर रहा, काम अनूठा, ख़ास।।
कहा पिता ने- पुत्र यह क्या करते हो काम?
क्या बोते हो खेत में, लेते नहीं विराम?
तब बालक ने जोश में, उत्तर दिया विशेष।
मैं बन्दूकें बो रहा, हो स्वतन्त्र निज देश।।
अशोक अंजुम द्वारा कविता में विन्यस्त यह प्रसंग हर सहृदय के चित्त में देशमक्ति की उमंग और मातृभूमि के लिए शक्तिभर कुछ विशेष करने की तरंग को जन्म देता है और यही श्रेष्ठ कवि की लेखनी की सार्थकता है।
इस पुस्तक में कवि का समग्र ध्यान एक शाश्वत राष्ट्रनायक की प्रेरणास्पद छवि के अंकन और उसके जीवन के कथासूत्र के सुचारू निर्वहन पर रहा है, अपनी कलात्मक क्षमताओं के प्रदर्शन तथा वाग्विदग्धता के निरूपण पर नहीं। दोहा एक मुक्त छन्द और खण्ड-काव्य एक प्रबन्ध-गाथा। दोहे में खण्डकाव्य लिखना अपने आप में कवि की शिल्प-शक्ति की श्रेष्ठता का सबूत है। भगतसिंह के विद्यालयीय परिवेश के वितान को व्याख्यायित करते हुए कवि उनके गुरुजनों की गौरव गरिमा का गान करते हुए इसी निष्कर्ष पर पहुँचता है:
जादू-सा करने लगा, कॉलेज का परिवेश।
भगतसिंह के हृदय में, बसा देश बस देश।।
जिस प्रकार भगतसिंह का हृदय देश के लिये स्पन्दित होता था उसी प्रकार कवि का हृदय भगतसिंह के लिए धड़कता है। वह उन्हें हर राष्ट्रप्रेमी के अन्तरासन पर अभिषिक्त करना चाहता है अतः उसने भाषा की प्रांजलता के नहीं प्रवाह के मार्ग का अनुसरण किया है। वह अपने वाग्वैभव को सामने लाने का नहीं, अपनी आन्तरिक राष्ट्रानुरक्ति को प्रकट करने वाला सत्याग्रही है और उसकी कविता नहीं उसका अन्तर्मन भी भगतसिंह के चित्त के ऊहापोह, अहिंसा और हिंसा के मार्ग की तुलना और अन्ततः राष्ट्र-कल्याण को सर्वोपरि मानकर ध्येय की श्रेष्ठता हेतु हर वैचारिक रूढ़ि को न्योछावर करने के चिन्तन-अनुचिन्तन का साक्षी और समर्थक बनता है।
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कवि की दृष्टि में अमर शहीद भगतसिंह की गाथा एक तीर्थ गाथा है और उसका पारायण चारों धामों का पवित्र भ्रमण है। अत्यन्त सहज और सरल शब्दावली में भगतसिंह के जीवन का रण और उनके श्रेयस्पद मरण का प्रेरक स्मरण देकर यह कृति एक तरन तारण की भूमिका निभाती है। ओजस्विता-तेजस्विता-विक्षोभ-विद्रोह-अमर्ष और अग्निवर्णी चेतना की लहरें उठाती यह गाथा एक खण्ड-काव्य के रूप में तो समाप्त हो जाती है किन्तु उसकी प्रेरणास्पद ध्वनि अखण्ड दीप की तरह हर सहृदय के अन्तस्तल में जागती रहती है और स्मृति में दीप्त होती रहती है भगतसिंह की वाणी:
फेंका बम जो सदन में, मकसद सिर्फ विरोध।
समझे वायसराय ना, बच्चा इमें अबोध।।
चाहत अपनी ये न थी लगे किसी को चोट।
जगह सुरक्षित देखकर किया गया विस्फोट।।
कै़द स्वयं हम हो गये, नहीं तनिक षड्यन्त्र।
मिटे सर्वथा मूल से, शोषक शासन-तन्त्र।।
कुचल सकी सत्ता नहीं, रूस-फ्रांस की क्रान्ति।
सफल यहाँ होगा दमन, है सत्ता की भ्रान्ति।।
क्रान्ति-चक्र ना रुक सके, फाँसी से श्रीमान।
ज्वाल तीव्र होगी अभी, अगर दिया ना ध्यान।।
अशोक अंजुम एक गीतकार, ग़ज़लगो, दोहाकार और व्यंग्यकार के रूप में साहित्य-जगत में प्रसिद्धि पा ही चुके हैं अब एक खण्डकाव्य की रचना कर उन्होंने शास्त्रीय रचनाकारों की पंक्ति में भी अपना स्थान सुरक्षित कर लिया है। प्रभु करे वह इस दिशा में और आगे बढ़ें।