‘मैं बन्दूकें बो रहा’ शहीदे आजम सरदार भगत सिंह की शौर्य गाथा का स्तरीय खंडकाव्य है। कवि श्री अशोक अंजुम ने महान क्रांतिकारी अमर शहीद सरदार भगत सिंह की बलिदानी गाथा को स्वाभिमानी एवं ओजस्वी स्वर दिये हैं। प्रस्तुत कृति के रचयिता प्रख्यात् कवि श्री अशोक अंजुम हिंदी साहित्य के अत्यंत दैदीप्यमान नक्षत्र की तरह सर्वत्र अपनी सारस्वत आभा बिखेर रहे हैं। जहाँ आपने गीत, ग़ज़ल, मुक्तक आदि के क्षेत्र में अपना दबदबा बना कर रखा है, तो वहीं वे दोहा लेखन के पारंगत पुरोधा के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुके हैं। दोहा विधा को समृद्ध करने के लिए श्री अशोक अंजुम को सदैव याद किया जाएगा। दोहा छंद के आप सिद्ध रचनाकार हैं। स्वयं के दो दोहा संग्रह ‘प्रिया तुम्हारा गाँव’ एवं ‘चंबल में सत्संग’ के साथ ही अभी तक आप के संपादन में 8 दोहा संकलन प्रकाशित और चर्चित हो चुके हैं। इसीलिए समीक्ष्य खंडकाव्य के लिए आपने लीक से हटकर दोहा छंद को ही चुना है। श्री अशोक ‘अंजुम’ हिंदी जगत के ऐसे प्रतिभाशाली कवि हैं जो काव्य मंचों के लिए श्रोताओं की अनिवार्य पसंद बन चुके हैं। आपके स्तरीय साहित्य सृजन के कारण अनेक विश्वविद्यालयों में आपकी कृतियों पर शोध कार्य भी हो रहे हैं। अब तक विभिन्न विधाओं में आपकी 24 मौलिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं तथा 38 पुस्तकों का आपने संपादन किया है। आप बहुत अच्छे चित्रकार और रंगमंच के कुशल अभिनेता हैं। साहित्यिक पत्रिका ‘अभिनव प्रयास’ का दक्षता पूर्ण संपादन आपको देशव्यापी प्रतिष्ठा से विभूषित कर रहा है।
प्रस्तुत खंडकाव्य के नायक शहीदे आजम सरदार भगत सिंह हैं, जो केवल 23 वर्ष की उम्र में भारत की आज़ादी के लिए लड़ते हुए फाँसी के फंदे पर झूल गए थे। आपने अपने क्रांतिकारी मित्रों सुखदेव, राजगुरु, बटुकेश्वर दत्त, चंद्रशेखर आजाद, जयदेव, देशराज, प्रेमदत्त, अजय, कुंदनलाल, सुरेंद्र, विजय सिन्हा, गया प्रसाद सान्याल आदि के साथ मिलकर अंग्रेज़ों की नाक में दम कर रखा था। कृतिकार श्री अशोक अंजुम ने कृति के संपूर्ण कथानक को 15 खंडों में बिंदुवार विस्तारित किया है। 1- जन्म और बचपन, 2- जलियांवाला बाग कांड, 3- असहयोग आंदोलन, 4- नेशनल काॅलेज, 5- गृहत्याग, 6- गिरफ्तारी वारंट, 7- साइमन कमीशन का विरोध, 8- कोलकाता यात्रा, 9-असेंबली बम कांड, 10- गिरफ्तारी, 11- न्यायालय में पेशी, 12- जेल का वातावरण, 13- लाहौर षड्यंत्र, 14- फाँसी की सज़ा का ऐलान एवं 15- अंतिम यात्रा।
‘जन्म और बचपन’ खंड में भगत सिंह की राष्ट्रभक्त वंशावली प्रस्तुत की गई है। यथा:
माता थीं विद्यावती, किशन सिंह पित नाम,
लायलपुर, पंजाब था, जिनका पता मुकाम।
अंग्रेजों को शूल की तरह चुभने वाले राष्ट्रभक्त चाचा अजीत सिंह एवं दादा अर्जुन सिंह आदि, क्रांतिकारियों के पोषक एवं सिरमौर थे। इनके घर में सदा भारत को आज़ाद कराने एवं क्रांति की बातें होती रहती थीं:
कैसे देश स्वतंत्र हो, कहाँ मिलें हथियार,
जिनके बल पर हो सके, अंग्रेजों की हार।
एक बार 3 वर्षीय नन्हा बालक अपने पिता के साथ अपने खेत में गया। वह वहाँ खेत में छोटे-छोटे तिनके रोपने लगा। पिता ने पूछा- ‘क्या कर रहे हो?’ इस पर भगत सिंह ने जो उत्तर दिया वह आश्चर्यचकित करने वाला था, तथा ‘होनहार बिरवान के होत चिकने पात’ वाली कहावत को चरितार्थ करने वाला था:
तब बालक ने जोश में, उत्तर दिया विशेष
‘मैं बन्दूकें बो रहा’, हो स्वतंत्र यह देश।
जलियांवाला बाग नरसंहार से तेरह वर्षीय भगत सिंह इतने व्यथित हो गए कि वे घर से तो विद्यालय के लिए निकले, किंतु अमृतसर पहुँच गये और बाग में जाकर शहीदों को नमन करते हुए वहाँ की रक्तरंजित मिट्टी एक बोतल में भरकर ले आए। असहयोग आंदोलन के समय भगत सिंह ने विदेशी वस्तुओं की होली जलायी। आपने अंग्रेजों को ईट का जवाब पत्थर से देने की ठान ली। आपकी दादी और परिवार के अन्य सदस्य भगत सिंह का विवाह कराना चाहते थे, किंतु भगत सिंह ने साफ मना कर दिया और क्रांतिकारियों की टोली में शामिल हो गए। नेशनल काॅलेज में अंग्रेजों द्वारा लाला लाजपत राय पर कराए गए बर्बर लाठीचार्ज से भगत सिंह बहुत आक्रोशित थे। वे गृह त्याग कर कानपुर चले गये। संगठन का खर्च चलाने के लिए क्रांतिकारी डाके डालते थे, किन्तु भगत सिंह को लूटपाट पसंद नहीं थी। क्रांतिकारी जगह-जगह आंदोलन कर रहे थे। पुलिस क्रांतिकारियों की धरपकड़ कर रही थी:
पुलिस कानपुर शहर की, हुई और मुस्तैद
क्रांतिकारियों को सतत, करती जाती कै़द।
भगत सिंह कानपुर से अलीगढ़ के एक गाँव में आ गये। वे एक शाला में शिक्षक हो गए तथा छद्म रूप से संगठन का काम करते रहे। इसी बीच उनकी दादी बहुत बीमार पड़ गयीं। वे पंजाब वापस चले गये तथा दादी की खूब सेवा की:
स्वस्थ हुईं दादी, मिला भगत सिंह का संग,
उनकी खिदमत देखकर, सब परिजन थे दंग।
इसी बीच अकालियों का एक जत्था जैतों जा रहा था। सरकार चाहती थी उनकी कोई मदद ना करे, किंतु भगत सिंह ने उनका स्वागत करते हुए बढ़-चढ़कर सहायता की। इस बात से मजिस्ट्रेट दिलबाग आग बबूला हो गया। उसने भगत सिंह का गिरफ्तारी वारंट निकाल दिया। भगत सिंह भागकर दिल्ली पहुँच गए। वहाँ वे अर्जुन नामक अखबार का संपादन-कार्य देखने लगे। उसी समय गंगा में भारी बाढ़ आ गई। भगत सिंह दिल्ली छोड़कर कानपुर आ गए तथा बाढ़ में तबाह हुए लोगों की सहायता में जुट गए।
उन्ही दिनों काकोरी ट्रेन डकैती हो गई। क्रांतिकारियों की धरपकड़ और तेज हो गई। नौजवान भारत सभा का गठन हुआ। भगत सिंह मंत्री बनाए गए। वीर सराबा के बलिदान का उत्सव मनाया गया। दुर्गा भाभी क्रांतिकारियों की खूब मदद करती रहीं। अमृतसर से रातों-रात लाहौर जाते समय भगत सिंह गिरफ्तार कर लिए गए। भगत सिंह पर भीड़ के ऊपर बम फेंकने का झूठा आरोप लगा दिया गया:
चाहे दो फाँसी मुझे, चाहे बाँधो तोप
कहा भगत ने- किंतु ये, निराधार आरोप
साठ हज़ार की बड़ी जमानत राशि जमा कराने के बाद भगत सिंह को छोड़ा गया। किंतु उन पर कड़ी निगरानी रखी जाने लगी। आपने चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में ‘साइमन कमीशन’ का विरोध किया। भारी उथल-पुथल मच गई। लाला लाजपत राय लाठियों के वार से लहूलुहान हो गए-
सांडर्स के वार से, लालाजी बेहाल
बुरी तरह घायल हुए, देह रक्त से लाल
सन् 1928 को लाला जी का प्राणान्त हो गया। राजगुरु और भगत सिंह की फायरिंग से स्काॅट की जगह सांडर्स मारा गया। दुर्गा भाभी भगत सिंह को अपना पति बना कर निर्भीकतापूर्वक अपने साथ कोलकाता ले गयीं। वहाँ कांग्रेस का अधिवेशन था। भगत सिंह बंगाली वेश में शामिल हुए, किंतु वहाँ समझौतेवादी ढुलमुल नीति देखकर भगत सिंह खिन्न हो गए। उसके बाद उन्होंने साइमन की उपस्थिति में संसद में बम पटक दिया। बम ऐसी जगह पटका कि कोई जनहानि न हो। बटुकेश्वर दत्त ने संसद में सरकार विरोधी पर्चे फेंके। वे दोनों भागे नहीं बल्कि इंक़लाब जिं़दाबाद के नारे लगाते हुए अपनी गिरफ्तारी दे दी।
सार्जेंट टेरी डरे, और जानसन साथ
खेल रही पिस्तौल थी, भगत सिंह के हाथ
गन रख दी तब डेस्क पर, देख उन्हें भयभीत
गिरफ़्तार वे हो गये, करके काम पुनीत
भगत सिंह यह चाहते, जाने सकल जहान
फेंका था बम किंतु क्यों, ली न किसी की जान
चंद्रशेखर आजाद नहीं चाहते थे कि भगत सिंह गिरफ्तार हों, किन्तु भगत सिंह ने उनकी एक न मानी।
भगत सिंह ने जेल की अमानवीय यातनाओं एवं कैदियों के साथ जानवरों से भी बदतर हो रहे व्यवहार और जेल की अव्यवस्थाओं के विरुद्ध आमरण अनशन किया, जिससे वे मरणासन्न हो गए। स्ट्रेचर पर रखकर पेशी पर ले जाये गये। उन्होंने न तो माफी मांगी और न अपने पक्ष में पैरवी करवाई। वे देशवासियों में अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध आक्रोश की ज्वाला भड़काना चाहते थे। उन्होंने जेल में रहते हुए विश्व के श्रेष्ठ साहित्य का अध्ययन किया। रूसी क्रांति से आप गहरे तक प्रभावित थे।
23 मार्च 1931 को भगत सिंह, सुखदेव एवं राजगुरु को फाँसी दे दी गई। उन्होंने ‘भारत माता की जय’ एवं ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ के नारों के साथ फाँसी को गले लगाते हुए मातृभूमि के लिए अमर बलिदान दिया। दोहा छंद में लिखा गया यह खंडकाव्य ‘मैं बन्दूक के बो रहा’ कवि श्री अशोक अंजुम को हिंदी साहित्य में आशातीत प्रतिष्ठा दिलाएगा।
अंत में एक बात अवश्य कहना चाहता हूँ कि खंडकाव्य नायक या नायिका की किसी घटना विशेष पर केंद्रित होता है जबकि इस कृति में शहीदे आज़म भगत सिंह के संपूर्ण जीवन का चित्रण किया गया है। यदि कवि ने थोड़े धैर्य और सूझबूझ से काम लिया होता-जैसे प्रत्येक सर्ग में छंद बदलकर जन्म से मरण तक की सभी घटनाओं को महत्वपूर्ण काल्पनिक विस्तार दिया गया होता, तो यह महाकाव्य बन गया होता। प्रस्तुत कृति से मेरी इस आकांक्षा को बल मिलता है कि श्री अशोक अंजुम निकट भविष्य में कोई महाकाव्य अवश्य लिखेंगे।