मनरँगना (Manrangana / Nanda Pandey)

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मनरँगना यानी प्रिय के मन को अपने रंग में रंग लेने वाला। ‘मन को प्रीत के रंग में रंग देने वाले की तलाश हर किसी को होती है लेकिन स्त्री? स्त्री तो प्रेम में ही जीना चाहती है।’ इसीलिए उसे ऐसे प्रेम की तलाश होती है, जो उसे अपने रंग में रंग ले और खुद भी उसके रंग में सराबोर हो जाए लेकिन अक्सर ऐसा होता नहीं है। ‘किसी के रंग अपने को रंग लेने के बाद उसे पता चलता है कि उसका कि उसका प्रेमी तो छलिया है।’ प्रेम के नाम पर मिला छलावा तोड़ता देता है उसे और वह घुट घुट कर जीने को विवश हो जाती है। ‘ऐसा सदियों से होता रहा है।’ स्त्री की इस पीड़ा ने “अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी। आँचल में है दूध और आँखों में पानी।” को साकार किया। ‘पुरुष तो आज भी छलिया ही है।’ वह स्त्री को आज भी छलता है लेकिन अब स्त्री उसके छलावे को लेकर जिन्दगी भर आँसू नहीं बहाती वह आगे बढ़ जाती है।
मनरँगना नंदा पांडेय का दूसरा संग्रह है। इस कविता-संग्रह की कविताओं में स्त्री का प्रेम है, प्रेम में मिला छलावा है, पुरुषसत्ता के बंधन हैं, उसका शोषण है, पुरुष की चालाकियाँ हैं लेकिन इन स्थितियों का प्रतिकार भी है। ‘इस संग्रह का मूल स्वर इसी प्रतिकारी स्त्री का स्वर है, जो मनरँगना के रंग में अपना मन रंग लेती है लेकिन उसका छलावा देख प्रतिकार से भर उठती है–मनरँगना वह मृगमरीचिका निकला। यह स्त्री सदियों से चली आ रही वर्जनाओं को पोटली में बाँधकर मौन की नदी में गाड़ देने का साहस भी रखती है। स्त्री विमर्श के इस दौर में, ये कविताएँ बिना शोर मचाये अपनी बात कह देती हैं। यही इन कविताओं की विशेषता है।

-उर्मिला शुक्ल

Author

Nanda Pandey

Format

Hardcover

ISBN

978-81-19590-48-3

Language

Hindi

Publisher

Shwetwarna Prakashan

Pages

152

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