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सुनो नदी! (Suno Nadi / Narayan Singh Nirdosh)

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“सुनो नदी!” कवि नारायण सिंह निर्दोष की कविताओं का पहला संग्रह है जिसमें उनकी पिछले चार दशकों में लिखी कविताएँ शामिल हैं। संग्रह की कविताओं में जीवन के अलग-अलग रंग हैं। उनमें विविधता भी है और व्यापकता भी। मानवीय, पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों में गहरे झाँकती और अपने समय के सच से टकराती इन कविताओं की ख़ासियत यह है कि इनमें बड़बोलेपन की जगह एक आत्मीय विनम्रता है। पाठकों की संवेदना को टटोलने की बेचैनी है। पढ़ लिए जाने के बाद कविताएँ तो विगत हो जाती हैं, लेकिन उनका असर अंतर्मन पर देर तक ठहरा रहता है।

“suno nadee!” kavi naaraayaN sinh nirdoS ki kavitaaon ka pahala sangrah hai jisamen unaki pichhale chaar dashakon men likhi kavitaaen shaamil hain. Sangrah ki kavitaaon men jeevan ke alag-alag rang hain. Unamen vividhata bhi hai aur vyaapakata bhee. Maanaveey, paarivaarik aur saamaajik rishton men gahare jhaankati aur apane samay ke sach se Takaraati in kavitaaon ki khaasiyat yah hai ki inamen badabolepan ki jagah ek aatmeey vinamrata hai. PaaThakon ki sanvedana ko TaTolane ki bechaini hai. Padh lie jaane ke baad kavitaaen to vigat ho jaati hain, lekin unaka asar antarman par der tak Thahara rahata hai.

Author

नारायण सिंह निर्दोष

Format

Paperback

ISBN

978-93-90135-22-6

Language

Hindi

Pages

130

Publisher

Shwetwarna Prakashan

5 reviews for सुनो नदी! (Suno Nadi / Narayan Singh Nirdosh)

  1. डॉ. उमेश महादोषी

    समकालीनता की दृष्टि से कविता का चरित्र परिस्थितियों, वातावरण और जीवन-मूल्यों में होने वाले परिवर्तनों के अनुरूप बदलता रहा है। इस बदलाव का स्वागत होना ही चाहिए। लेकिन कविता को पाठक से जोड़ने की दृष्टि से विचार और अनुभूति का संयोग समकालीन कविता का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है। इसके बिना उसका शिल्प और सौंदर्य भी आकर्षण से आबद्ध नहीं हो पाता। यह संयोग जब सहज-सरल बिम्बों को अपना माध्यम बनाता है तो कविता का आस्वाद कई गुना बढ़ जाता है। किन्तु विचारों की प्रधानता जब विचारधारा की प्रधानता में बदल जाये तो कविता अपने सामान्य पाठक से दूर होने लग जाती है। कविता आस्वादविहीन होने लगती है। ऐसी कविताओं को पढ़ते हुए मन उसकी लम्बाई नापने लग जाता है। समझ जा सकता है, तब अर्जुन का तीर कितना निशाने पर होगा। नई कविता के उत्कर्ष काल समझे जाने वाले समय के कई सुप्रसिद्ध कवियों की अधिसंख्यक कविताओं, विशेषतः लम्बी कविताओं को पढ़ते हुए मुझे ऐसा ही लगता है। इस स्थिति में भी विगत सदी के पचास के दशक की पीढ़ी से लेकर मौजूदा दशक की पीढ़ियों तक के कुछ ऐसे कवि अवश्य हैं, जिनकी कविता पाठक से अपना रिश्ता स्यवं जोड़ने में सक्षम है।
    श्री नारायण सिंह निर्दोष युवा कवि के रूप में सत्तर के दशक के अन्तिम दो-तीन वर्षों में उभरते हैं। 1981-82 तक आते-आते वह नई कविता में अपनी पहचान बनाते दिखाई देते हैं। 1980 में रचित कविता ‘मैं बेशरम का पेड़ हूँ’ अपनी भाषा व शैली के साथ अपनी संवेदनात्मक अनुभूति और विचार के समन्वय को लेकर उन्हें स्थापित कवियों के बराबर लाकर खड़ा कर देती है। उन दिनों आगरा के साहित्यिक परिवेश में इस कविता को जो सम्मान मिला, वह अविस्मरणीय है। इसके बाद एक दशक के अन्दर उनकी कई रचनाएँ, यथा- ‘ये कैसे सपने हैं’ (1982), ‘तुम भी तो छोड़ आये गाँव पंछी’ (1983), भेड़िया (1983), पिता को संबोधित एक कविता (1985), मैं अपराधी हूँ शांत झील! (1985), नदी: चार कविताएँ (1989), धरती पर उतरा आकाश (1990) आदि बेहद प्रभावित करती हैं। प्रभावशीलता का यह तारतम्य निरंतर (अस्पताल: तीन कविताएँ -1993, भूकंप -1996, मंडी हाउस -1996, तुम्हारी निगाह में रहते हुए -1996, अचानक एक विचार -1998, राहतें -2004, पतीले में उबल रहा है दूध -2005, जंगल: एक दृश्य -2014, सौहार्द -2018, क्या कुछ नहीं करना पड़ता -2018, सामने आकर खड़ा हो गया डर -2019, फिर भी डर तो लगता है -2020) बना हुआ दिखाई देता है। चूँकि इन कविताओं में वे रचनाएँ शामिल नहीं हैं, जिन्हें अन्य संग्रहों के लिए बचाकर रखा गया है; इसलिए उनकी रचनात्मकता का पूरा कोलाज यहाँ प्रस्तुत नहीं हो सकता।
    ‘सुनो नदी!’ संग्रह केवल एक कविता संग्रह नहीं है, अपितु अनुभूतियों के सघन पुंज का ऐसा सम्प्रेषण है, जो पाठक को सोचने पर विवश करता है कि इस मौजूदा समय में काल के शिखर पर खड़े होकर तन-मन की समग्र ऊर्जा को समेटकर अन्तर-वीणा के तारों को इस तरह झंकारने की आवश्यकता है कि आँखों की पुतलियाँ बोलने लग जायें, हृदय की झीलें तरंगों से भर जायें, निर्दोष जी जैसे कवि किस क्षीरसागर में निद्रामग्न रहते हैं! हे कवि जागो, जागो! अपनी काव्य-ऊर्जा से सारी अन्तर्घाटियों को कम्पनों के झूलों पर झुला दो!

    -डॉ. उमेश महादोषी
    121, इन्द्रापुरम्, निकट बीडीए कॉलोनी, बदायूँ रोड, बरेली-243001, उ.प्र./मो. 09458929004

  2. Deepika Aggarwal

    सुनो नदी!– बहुत ही सुन्दर पुस्तक बन पड़ी है यह। एक पाठक की दृष्टि से देखूं तो इन कविताओं में नदी की तरह सरलता और प्रवाह है। जीवंतता है। कवि का बात कहने का ढंग और भाषा शैली मन को छू लेते हैं। कई-कई बार पढ़ने का मन करता है। पढ़ने के बाद ये किताब मैं अपनी सखियों को सौंपने वाली हूं।

    दीपिका अग्रवाल
    नई दिल्ली।

  3. Harrshit Guptaa

    एक अरसा हो गया

    बीते कुछ वर्षों में मैने महसूस किया है कि कविता के क्षेत्र में एक मायूसी सी छाई हुई है। युवा वर्ग तो कविता सुनने के नाम पर जम्हाई तक लेने लगता है। और शायद मैं भी उन्ही मे से एक हूं।

    ना जाने क्यों ऐसा प्रतीत होता है कि अब कविताओं में वो रिदम नहीं रहा जो कभी इस देश के कवियों की शान कहलाता था। जिसे सुनकर कान तृप्त हो जाते थे। यूं लगता है आजकल की कविताओं को पढ़कर… कि एक अच्छी खासी दमदार लाइन को इन्टर की मार – मारकर उसके चार टुकड़े कर दिये गये हों।

    पर मेरी इस अवधारणां को तोड़ा { सुनो नदी } ने, जो अपने नाम के अनुरूप ही बहती चली जाती है और आपको अपने शब्दों के जाल में सराबोर कर बहा ले जाती है। यह सिर्फ एक कविता संग्रह नहीं अपितु इसके लेखक की एक आत्मगाथा है जो उसने अपने जीवनकाल में अनुभव के रूप में दर्ज की है।

    जीवन के चालीस साल को एक किताब में दर्ज करना आसान नहीं होता, पर लेखक ने यह कार्य बखूबी अंजाम दिया है।

    1980 से शुरू होकर वर्तमान के कोरोना काल तक को अपने आप में समेटे यह कविताओं का संग्रह आपको एक अलग काल में समेटने की कोशिश करता है। ऐसा कोई भी विषय अछूता नहीं रहा संसार का जो इस किताब में दर्ज ना हो।

    हर कविता अपने आप में एक व्यक्तिगत विषय को पकड़ उसमें आपको एक अहसास दिलाती है।

    राज़, समाज, प्यार, परिवार, सरकार, अपराध बोध, त्याग – हर विषय पर लिखा गया है।

    72 कविताओं का यह खूबसूरत संकलन आपको हर उस रस से भर देगा जो एक पाठक तलाशता है।

    अगर शब्दों में नयापन और कुछ अलग पढ़ने की चाह रखते हैं कविताओं के रूप में, तो आपको इस पुस्तक को अवश्य अपनाना चाहिए।

    Dhruv Gupt जी का विशेष आभार प्रकट करना चाहूँगा, जिन्होंने इस किताब की खूबसूरत समीक्षा की है। जो वाकई आप जैसे शख्स से डिजर्व करती है।

    धन्यवाद।

  4. Ashoo Mahajan

    सुनो नदी…. संवेदनाओं का अलख जगाती कविताओं का एक अनूठा संग्रह । हर कविता अपने आप में मानो एक कहानी सी कहती है जिसके साथ मन अनायास ही जुड़ जाता है।मानवीय संवेदनाओं को चित्रित करती यह रचनाएं किसी भी आडंबर से परे हैं और समाज में व्याप्त विषमताओं को भली भांति उजागर करती हैं । ज़िन्दगी से सरोकार रखती इन रचनाओं ने मन को गहरे तक छुआ है। कई कविताओं में कवि ने प्रकृति का मानवीकरण करके उसे ऐसा जीवंत रूप दिया है की बात मानसपटल से होते हुए सीधे दिल में उतर जाती है। मेरे वे मित्र जो थोड़ा सा भी संवेदनशील हैं, उन्हें इन रचनाओं का लुत्फ़ अवश्य ही उठाना चाहिए। मेरा मानना है कि इस अनूठे काव्य- संग्रह को पढ़ने का मौक़ा किसी भी सुधी पाठक को नहीं गंवाना चाहिए।

  5. अलंकार सिंह (verified owner)

    आजकल कवि नारायण सिंह निर्दोष की पुस्तक सुनो नदी! सोसल मीडिया पर ख़ास चर्चे में है। मेरी जिज्ञासा हुई तो पुस्तक श्वेतवर्णा प्रकाशन से खरीद कर पढ़ी। सबसे पहले पुस्तक के बाहरी रूप ने ही बहुत आकर्षित किया। सुनो नदी! नाम के अनुरूप ही पुस्तक का आवरण जीवंत है। पुस्तक की साज सज्जा मुद्रण आदि पर प्रकाशक ने खूब लागत लगाई लगता है।कविताएं क्योंकि पिछले चार दशक में लिखी गईं हैं जैसा कि पुस्तक से ज्ञात हुआ है, ये हर पीढ़ी के लिए पठनीय रचनाएं हैं। कवि का लेखन हट कर कुछ ख़ास अंदाज़ लिए हुए है। खूबसूरत भाषा शैली में हर विषय को छूती हुईं ये कविताएं जितनी भी बार पढ़ी जाएं एक अलग तरह का स्वाद और सुख देती हैं। हर बार नई ताज़गी सामने आती है और ये याद भी हो जाती हैं।

    मैं तुम्हारी /छोड़ी हुई साँसें
    लेकर जीता हूँ,
    और तुम मेरी।

    हम लोग
    एक-दूजे की देह से
    भाप बनकर उड़ा हुआ पानी
    ज़मीन खोदकर पीते हैं।

    इतना तो प्यार है
    हमारे बीच!

    कितनी बड़ी बात कह दी है उक्त कविता में।

    औरत की जीवंतता को बयां करती एक कविता के अंश देखिए:-

    समय के साथ-साथ
    नहीं बीतता
    औरत के भीतर का कौतूहल
    वो जीना जानती है
    हरेक लम्हा, हरेक पल।

    यह पुस्तक हर आयु वर्ग के पाठकों को पढ़नी चाहिए।

    अलंकार सिंह, दिल्ली।

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