रमाकान्त सिंह ‘शेष’ गीतों को सिर्फ रचने वाले नहीं अपितु जीने वाले गीतकार हैं। समय से साक्षात्कार करते हुए इनके गीतों का कथ्य एक दार्शनिक अध्येता की तरह जीवन अनुभवों के साँचे में ढलता है। और पाठक इस ईमानदार अभिव्यक्ति की उँगलियाँ थामकर उस ध्येय की ओर चल पड़ता है जहाँ से कि वह पुन: लौटकर आना नहीं चाहता। आज के समय में जहाँ काव्य संवेदनाएँ बौद्धिकता की कड़ी चट्टान पर सिर पटककर दम तोड़ रही हैं वहीं गीत में आकांक्षा, जिजीविषा और संभावनाओं की यह यात्रा रमाकान्त जी को औरों से अलग दिखाती है। उलझनों, विवशताओं, विसंगतियों और विद्रूपताओं से घिरे इस युग में प्रेम, विश्वास और सुखद अनुभूतियों को लिखना खतरे से खाली नहीं है। ऐसे समय में भी आलोचकों की परवाह किये बिना अनुभूतियों को पढ़ना, गुनगुनाना, स्वतः स्फूर्त संवेदनाओं को शब्द प्रदान करते देखना सुखद है। इनके गीतों में गुनने और गुनगुनाने दोनों का भाव है। जो हृदय को आंदोलित कर जड़ता की गाँठों को खोलने में समर्थ है। शब्दों का चयन, भावों का संतुलित सम्प्रेषण जहाँ इसे सहजता प्रदान करते हैं वहीं गीत की भाषा हृदय की अनुभूतियों को प्रतिबिंबित कर रही है।
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