श्री रमाकांत सिंह ‘शेष’ जी एक श्रेष्ठ साधक एवं रससिद्ध कवि हैं। आप लम्बी अवधि से काव्य-सर्जन-कर्म में संलग्न रहे हैं। पाँच दशक से भी अधिक समय तक विस्तृत उनका साहित्य अपने अंतर में वैविध्य को समेटे हुए है। श्री ‘शेष’ जी का रचनाकर्म उनके जीवन से असम्पृक्त नहीं है। उन्होंने जो जिया है, उसे अपने शब्दों में पिरोने की चेष्टा की है। सांसारिक प्रपंचों से अनासक्त रहकर वे पूर्णतः काव्य के प्रति समर्पित एवं प्रतिबद्ध हैं।
‘भाव-त्रिवेणी’ नामक यह काव्य-ग्रन्थ उनके सन `७० के दशक के उन्हीं साधनात्मक अनुभवों की काव्यमयी अभिव्यक्ति है। इससे पहले यह सम्पूर्ण संग्रह तीन पृथक्-पृथक् पुस्तकों के रूप में प्रकाशित हो चुके हैं। उन पुस्तकों के क्रमशः नाम हैं– ‘अंतर्बोध’, ‘प्रत्यभिज्ञा’ एवं ‘अधूरे हैं बिना तेरे…’। इन तीनों पुस्तकों का क्रम अनायास नहीं, बल्कि पूर्वापर के क्रम में है। इन पुस्तकों का वही क्रम है जो एक साधक की उत्कट जिज्ञासा एवं उस जिज्ञासा के अपरोक्षानुभव में पर्यवसान तक की प्रक्रिया में स्वभावतः अंतर्ग्रथित होता है। जिज्ञासा, साधन-क्रम एवं बोध इन कविताओं के वर्ण्य-विषय हैं। इन अनुभवों को भारी-भरकम शास्त्रीय शब्दावली में नहीं व्यक्त किया गया है, क्योंकि यह शास्त्रज्ञान से आतंकित करनेवाले किसी धुरंधर पण्डित की कृति नहीं; बल्कि एक सहृदय कवि के साधनानुभवों से सींचा गया काव्य का ऐसा बिरवा है, जिसकी छाँह में बैठकर लोक आनंदित होता है।
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