मन के मनके दोहरे (Man Ke Manke Dohre / Dr. Premlata Tripathi)

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दोहा छंद हिन्दी के प्राचीनतम छंदों में से एक है। अपनी सैकड़ों वर्ष की यात्रा में इस छंद ने भक्ति, नीति, शंृगार से होते हुए वर्तमान दौर की बदली हुई स्थितियों तक अनुभव और विषयवस्तु का कोई कोना अछूता नहीं छोड़ा है। दो धाराओं के साथ समकालीन दोहा जहाँ आज परम्परागत नीति, भक्ति और शंृगार की त्रिवेणी जी रहा है वहीं अपने सामाजिक कर्तव्यों का भी निर्वहन कर रहा है। प्रस्तुत संग्रह ‘मन के मनके दोहरे’ इन दोनों धाराओं का संगम प्रस्तुत करता है। इस संग्रह में डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी जी की संस्कृत साधना जहाँ तत्सम शब्दावली के साथ सुसंस्कृत भाषा में दोहे को अर्थ विस्तार प्रदान करती है वहीं समकालीन शब्दावली के साथ उसे बोधगम्य भी बनाती है। “संस्कृति के सम्मान से, बड़ा न कोई धर्म” से लेकर “जाति-पाति, मतभेद क्यों, हुआ देश बेहाल” तक की चिन्ता इनका अर्थ विस्तार और विविधता प्रस्तुत करती है। “सुजन नित्य चिन्तन करें, सुन्दर हो निष्काम” की भावना इन्हें पाठकों तक यह सन्देश पहुँचाने के लिए प्रेरित करती है-
“चिन्ता से चिन्तन भला, होता निश्चित शोध।
ज्ञान चक्षु के द्वार से, मिटे सकल अवरोध।।”
अंत में मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ कि इनकी कलम ऐसे ही समाज को शब्दों का आलोक देती रहे।
गरिमा सक्सेना
सम्पादक : दोहे के सौ रंग

ISBN

978-81-96226-01-5

Author

Dr. Premlata Tripathi

Format

Hardcover

Language

Hindi

Pages

112

Publisher

Shwetwarna Prakashan

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