पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मोन, बुद्धि आ अहंकार, ई आठ प्रकार सँ विभक्त कयल गेल भगवानक अपरा प्रकृति यानी जड़ प्रकृति कहल गेल अछि। एहि सँ अलग प्रकृति-परा प्रकृति यानी चेतना प्रकृति कहल जाइत अछि। संपूर्ण भूतक उत्पत्ति एही दू प्रकारक प्रकृति सँ होइत अछि।
मानव शरीरक मेरुदण्डमे सभसँ नीचा मूलाधार चक्र अछि जाहिमे अपरा यानी जड़ प्रकृति कुंडलनी सुप्तावस्थामे स्थित छथि। मेरुदण्डक सभसँ ऊपर सहस्भार या सहस्त्रदलकमलसिरमे चेतन रूप जीवात्मा स्थित छथि। हमरा लोकनिक प्रकृति, जड़ आ चेतना एक दोसर सँ वियोगक स्थितिमे छथि। आवश्यकता एहि वातक छैक जे यौगिक क्रिया द्वारा यानी सुप्ता कुंडली मूलाधारमे जगा कऽ क्रमसः मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्धाख्य आ आज्ञा चक्र केँ भेदन करैत कुंडलनी सहस्त्रारमे आत्म तत्व सँ मिलि जाइथ तखने जीवक कल्याण संभव छैक अन्यथा अनन्त काल तक प्रकृतिक मायाजालमे जीवन फँसल रहताह, षट चक्र भेदन कुंडलनी योग साधक लोकनिक हेतु एक उत्कृष्ट आ उपयोगी योग दर्शन अछि। एहि काव्यमे युक्तिवादक अवलम्बक नहि कऽ कऽ कम सँ कम शब्दमे अपना सिद्धान्तक निरुपण कयल गेल अछि। ब्रह्माण्डमे जे किछु स्थित अछि ओ मानवपिंडमे सेहो स्थिति अछि। मानव पिंड कें छुद्र ब्रह्माण्ड या लघुतम ब्रह्माण्ड कहल जाइत अछि।
-मधुसूदन झा ‘मधु’
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