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लक्ष्यों के पथ पर (Lakshyon Ke Path Par / Rajendra Rajan)

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‘लक्ष्यों के पथ पर’ भाषा, शैली और शिल्प के दृष्टिकोण से एक प्रेरणादायी उपन्यास है। दरअसल यह बेगूसराय की सांस्कृतिक धरती पर पिछले सौ वर्षों से चल रहे कम्युनिष्ट आंदोलन का यथार्थवादी चित्रण है। उससे उठने वाले सवाल, भटकाव, शहादत जैसे तमाम चीजों का वस्तूपरक विश्लेषण है। इस आंदोलन में लेखक स्वयं पिछले पचास वर्षों से भागीदार रहे है। वह इसे आत्मकथा के रूप में भी लिख सकते थे लेकिन ऐसा नहीं कर उन्होंने एक ‘मनोहर’ नामक पात्र को चुना जिसमें संघर्ष करने की क्षमता और नैतिकता कूट कूटकर भरी है। वह स्वतंत्र, जागरूक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ जीने वाला है।

‘lakSyon ke path par’ bhaaSaa, shaili aur shilp ke dRiSTikoN se ek preraNaadaayi upanyaas hai. Daraasal yah begoosaraay ki saanskRitik dharati par pichhale sau varSon se chal rahe kamyuniST aandolan ka yathaarthavaadi chitraN hai. Usase uThane vaale savaal, bhaTakaav, shahaadat jaise tamaam cheejon ka vastooparak vishleSaN hai. Is aandolan men lekhak svayan pichhale pachaas varSon se bhaageedaar rahe hai. Vah ise aatmakatha ke roop men bhi likh sakate the lekin aisa naheen kar unhonne ek ‘manohar’ naamak paatr ko chuna jisamen sangharS karane ki kSamata aur naitikata kooT kooTakar bhari hai. Vah svatantr, jaagarook aur vaij~naanik dRiSTikoN ke saath jeene vaala hai.

Author

राजेंद्र राजन

Format

Hardcover

ISBN

978-81-949458-8-8

Language

Hindi

Pages

448

Publisher

Shwetwarna Prakashan

6 reviews for लक्ष्यों के पथ पर (Lakshyon Ke Path Par / Rajendra Rajan)

  1. Sunil Singh

    कुछ राजनीतिक घटनाओं जिनपर अलग अलग लोगों की अलग प्रतिक्रिया हो सकती है लेकिन कुल मिलाकर यह उपन्यास बेगूसराय जिले की शोषित पीड़ित जनता के संघर्ष का न सिर्फ केटलगिंग है बल्कि कुछ उठनेवाले सवालों को बड़े मार्मिक एवं निर्भिकता से उठाया है. लेखक एक बेहतरीन किस्सागो है. पूरी उपन्यास में क्रम नहीं टूटता है. सेक्स को लेकर एक झूठी नैतिकता पर प्रहार करते हुए एक नई नैतिकता की मांग करता है जो इस उपन्यास के माध्यम से दिखाने की कोशिस की है जो कुछ समय से आगे है. फिर इसे लेकर सच को दिखाना होगा.
    https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=887696945133936&id=100016809161952
    https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=888460388390925&id=100016809161952

  2. Sunil Singh

    कुछ राजनीतिक घटनाओं जिनपर अलग अलग लोगों की अलग प्रतिक्रिया हो सकती है लेकिन कुल मिलाकर यह उपन्यास बेगूसराय जिले की शोषित पीड़ित जनता के संघर्ष का न सिर्फ केटलगिंग है बल्कि कुछ उठनेवाले सवालों को बड़े मार्मिक एवं निर्भिकता से उठाया है. लेखक एक बेहतरीन किस्सागो है. पूरी उपन्यास में क्रम नहीं टूटता है. सेक्स को लेकर एक झूठी नैतिकता पर प्रहार करते हुए एक नई नैतिकता की मांग करता है जो इस उपन्यास के माध्यम से दिखाने की कोशिस की है जो कुछ समय से आगे है. फिर इसे लेकर सच को दिखाना होगा. नीचे दिए गए लिंक पर आप मेरी प्रतिक्रिया पढ़ सकते हैं.
    https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=887696945133936&id=100016809161952
    https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=888460388390925&id=100016809161952

  3. Rajkishor singh

    प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव विधायक राजेंद्र राजन द्वारा रचित “लक्ष्यों के पथ पर” एक आत्मकथात्मक उपन्यास है।
    इस उपन्यास में लेखक अपने जीवन के घटनाक्रम को बहुत ही सुंदर ढंग से प्रदर्शित किया है ।इस उपन्यास में कई काल्पनिक पात्र हैं,उन काल्पनिक पात्रों के माध्यम से रचनाकार ने अपने आत्मा की अनुभूति को आंचलिक भाषा में प्रकट किया है। काल्पनिक पात्रों में स्वयं रचनाकार मनोहर नामक पात्र हैं। लेखक के पिता ‘कैलाश’ एवं पत्नी ‘प्रभा’ काल्पनिक पात्र हैं, जीवन की वास्तविक घटना को काल्पनिक माध्यम से व्यक्त कर लेखक का लेखककीय कलात्मक गुण है, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक जीवन की हर घटना को स्पष्ट रुप से रखना एक सफल उपन्यासकार का फर्ज है।
    घर की सामाजिक परिवेश की हर घटना को बिना छिपाए लिखना लेखक की लेखककीय ईमानदारी है। अपने राजनीतिक जीवन की घटना को जिस प्रवाह से लिखा गया है वह एक अनुकरणीय चीज है।
    लेखक को बचपन में ही मां का प्यार नहीं मिल सका, अपने जीवन गाथा में संयुक्त परिवार की खामियों एवं प्रदा- प्रथा पर सीधा हमला किया है। रचनाकार पुरुष होते हुए भी नारी के नारीत्व को निकट से देखा है। फ्लेग, चेचक एवं हैजा जैसे संक्रमित बीमारी के बेला में भी पति-पत्नी को एक साथ रहना एक अनंदनीय अनुभूति को दिखाया गया है।लेखक अपने छात्र जीवन एवं विधायक जीवन के आयामों को स्पष्ट ढंग से रखा है। जिला कार्यालय किसी भी पार्टी का सबसे महत्वपूर्ण जगह होता है। कार्यानंद भवन के निर्माण में रचनाकार ने अपनी पत्नी से उनकी अंगूठी एवं हार लेकर पार्टी कार्यालय के निर्माण में दे दिया(‘सोना’ विपत्ति का हार एवं सुख का श्रृंगार होता है)। सोवियत संघ यात्रा का विषद वर्णन उपन्यास का एक आकर्षक केंद्र बिंदु है। उपन्यासकार ने बेगूसराय कम्युनिस्ट आंदोलन के एक दुखद अवस्था पर ध्यान केन्द्रित किया है।
    प्रस्तुत उपन्यास में “बैठ बेगारी एवं दलितों के इज्जतों” के साथ खिलवाड़ के विरोध में संघर्ष की एक क्रांतिकारी मिशाल पेश किया है।
    भारतीय मार्क्सवाद की स्थापना एवं प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की गाथा को बहुत ही सुंदर ढंग से लिखा गया है। उपन्यासकार ने कई स्थानों पर विचारधारात्मक जड़ता पर चोट एवं मरहम लगाया है।राजनीतिक जड़ता पर एवं राजनीतिक नैतिकता पर प्रहार लेखकीय ईमानदारी का प्रमाण है।मुझे “लक्ष्यों के पथ पर” उपन्यास बहुत अच्छी लगी है।आशा है कि हमारी पार्टी साथियों को भी इससे नई जानकारियां मिलेगी।

  4. दीनानाथ सुमित्र

    पता नहीं मैंने कितने उपन्यासों का पाठ किया ,विश्व के प्रसिद्धतम कथाकारों से मैं परिचय प्राप्त करता रहा, पढ़ता रहा किंतु इस वृद्धावस्था ने ,आँखों की कमजोरी ने कम पढ़ने के लिए वाध्य कर दिया है ।
    राजन जी के संपर्क में पिछले 50 वर्षों से हूँ ,उन्होंने ही मुझे प्रेरित किया था कि आप एक गीत लिखो जिसमें सांप्रदायिकता का विरोध हो तो मैंने लिखा था” लड़ो उल्फत की खातिर” जो मेरी पहचान बन गई रचना है।पता चला कि नए उपन्यास के सृजन की योजना बना रहे हैं राजन जी ।एक समय आया जब उन्होंने बताया कि 70 दिन में 70 घंटे का श्रमफल है यह उपन्यास। मैं राहुल शिवाय के साथ ही उसी के बाइक पर विप्लव जाया करता हूं और राजन जी ने राहुल से आग्रह नहीं आदेश दिया कि तुम अपने प्रकाशन श्वेतवर्णा. से ही इस उपन्यास को प्रकाशित करो। राहुल ने जी जान लगा दिया और पुस्तक छप गई ।23 मार्च 2021को विप्लवी के वार्षिक उत्सव और प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक और शहीद दिवस के अवसर पर 2 दिनों का विराट आयोजन हुआ जिसमें देश के बड़े बड़े साहित्यकार विचारक दार्शनिक उपस्थित हुए और उन्हीं की उपस्थिति में इस दीर्घकाय उन्यास का लोकार्पण हुआ। लोकार्पण के बाद बड़े-बड़े आलोचकों ने इसकी समीक्षा की।स्वयं लेखक ने भी अपनी बातें रखी ।बड़ा आनंद आया इस उत्सव में शामिल होकर ।बड़ी बात यह हुई कि नरेश सक्सेना जी को सम्मानित किया गया विप्लवी पुस्तकालय की ओर से ,उन्हें नामवर सिंह सम्मान से सम्मानित किया गया। कवि नरेश सक्सेना उम्र दराज हैं किंतु उनकी आवाज की ठनक है,प्रेरित करती है कि शरीर बूढ़ा हो जाए तो हो जाए मन को जवान ही रखना चाहिए।
    अब मैं पुस्तक की ओर आना चाहता हूं यह उपन्यास लक्ष्यों के पथ पर अपने आप में अनुपम है अनुपमेय है अद्भुत है। इसमें बड़े छोटे अनगिनत चरित्र हैं लेकिन चरित्र तो वह होता है जिसमें उदात्तता हो ।छोटे बड़े सभी चरित्र उदात्त चरित्र हैं खास करके नायक मनोहर और उसकी अर्धांगिनी प्रभा को विश्व साहित्य का महान चरित्र कहा जा सकता है। देव और देवी के टक्कर का चरित्र। इस उपन्यास में आजादी के बाद के भारत की चर्चा है आजादी आई किंतु राजनीतिज्ञ सत्ताधारी शासक और प्रशासक लूट खसोट में जुट गए । देश का विकास तो हुआ काफी विकास हुआ ,सड़कें बनी कारखाने खुले अंतरिक्ष विजय हुआ भारी भारी इमारतें बनी रेल की पटरिया फैलीं खूब तेज गाड़ियां चलीं । फर्स्ट क्लास सेकंड क्लास थर्ड क्लास हट गये, अब ए सी है और सकेंड क्लास है । थर्ड क्लास है ही नहीं लेकिन एक क्लास का डीक्लास नहीं हो सका ।ए क्लास और ए प्लस हो रहा है अर्थात वर्ग भेद बढ़ता ही जा रहा है ।वर्ग संघर्ष का जिसने शपथ ली थी ने अपने पुरखों के पथ को भुला दिया लगभग और उसका फल मिल रहा है देश को और देश की जनता को ।
    हमारा देश सत्ता परिवर्तन के बाद व्यवस्था परिवर्तन की ओर न दौड़ सका ,अगर यह दौड़ ईमानदार होता तो मुझे मालूम है भारत की मिट्टी भारत की प्रतिभा भारत का परिवेश सर्वोत्तम है और 75 वर्ष की आजादी क्यों विषम होती यदि शुद्ध ईमानदार लोगों के हाथ में सत्ता होती तो दुनिया का कोई देश हमारे सामने खड़ा नहीं हो पाता।

    चलिए उपन्यास की बात करूं उपन्यास में ढेर सारी सुक्तियाँ हैं ,हिंदी साहित्य में प्रेमचंद ने और जयशंकर प्रसाद ने असंख्य सूक्तियां दी हैं। राजन जी भी उसी कतार में खड़े नजर आते हैं ।यह उपन्यास जितने दिनों में लिखा गया उससे भी अधिक समय लेकर मैंने अपनी बूढ़ी आंखों से इसे पढ़ा और ईमानदारी से पढ़ा।कई बार आंखें भरीं,कई बार ठहाका लगाया कई बार सूरज दा देवकी दा और वकील साहब और डॉक्टर साहब के साथ चला बहुत दूर तक चला कई बार मनोहर के साथ चला। कितना संघर्ष करना पड़ता है एक मनुष्य को कितनी लड़ाइयां लड़नी पड़ती है एक मनुष्य को अपने लक्ष्यों के पथ पर अग्रसर होने के लिए मनोहर m.a. b.a. न कर सके अपने लक्ष्य के कारण कमाई न कर सके अपने लक्ष्य के कारण पटना दिल्ली या महानगरों में भवन न बनबा सके अपने लक्ष्य के कारण बेटियों और बेटों को बड़ी संपदा न दे सके अपने लक्ष्य के कारण जो 15 वर्षों तक एमएलए हो एमपी होने की संभावना को ठुकरा दिया हो., ऐसा चरित्र भला रामचरित्र से कृष्ण चरित्र से बुद्ध चरित्र से गांधी चरित्र से कैसे कम कर कहा जा सकता है।
    अब मैं शिल्प की बात करता हूं शिल्प की दृष्टि से यह गजब उपन्यास है इसे खंडित नहीं किया गया है अध्याय में बांटा नहीं गया है ।मनोहर की हत्या से लेकर अमर के आखिरी वक्तव्य तक लगातार कहानी चलती रही है दौड़ती रही है ।भाषा बिल्कुल आम जन की भाषा है। पढ़ते समय जिज्ञासा बनी रहती है अब क्या होगा अब क्या होगा ।

  5. Sitaram Singh

    इस कथा साहित्य का कथानायक मनोहर के दुर्दांत मर्मभेदी वर्णन लेखक ने किया है। मुझे लगता है कि अविभाजित वामदल का भूमिहीन और जमींदारों के बीच सशक्त संघर्ष का यह वर्णन है । आज वामदल दो या तीन भाग में विभक्त हैं । एक नक्सलवादी है ।इन सबों के साथ साथ गांधी और गांधी के विचार पूरक की तरह लगते हैं । इन बातों से ज्यादा प्रभाव डाल रही बाजार और उसका तिलिस्म है ।बाजार ज्यादा चंचल है कि हमारा समय, इस पर सीधा जवाब मुश्किल है । बाजार की चंचलता और चंचल बहुरूपियापन को जमीनी तौर पर मार्क्सवाद और गांथीवाद को पहचानना कठिन हो गया है । ऐसे में लक्ष्यों का पथ दिशासूचक का काम करता है।

  6. Arun Kumar

    का.राजेंद्र राजन जी द्वारा लिखित और श्वेतवर्ण प्रकाशन दिल्ली द्वारा प्रकाशित उपन्यास “लक्ष्यों के पथ पर” तीन दिन पूर्वआँनलाइन प्राप्त हो गया है।इस उपन्यास को पढने की बैचेनी थी।पढना प्रारंभ किया तो महसूस कर रहा हूँ कि वस्तुतः लीक से हटकर बेवाक प्रस्तुति है।बिहार में और खासकर बेगूसराय में कम्युनिस्ट पार्टी के अभ्युदय और संघर्ष की पांडुलिपि है,यह उपन्यास।मुंगेर और बेगूसराय की संघर्षशील और क्रांतिकारी सांस्कृतिक परंपरा से परिचित होने के चलते ऐसा अनुभव होता है कि अपनी और अपने गौरवशाली धरती का इतिहास पढ रहा हूँ।सामंतवाद से पूँजीवाद और फिर समाजवाद की ओर बढते समाज की अनेक शहादत और कुर्बानियों की गाथा इस उपन्यास में साकार हुई हैं।
    पीढियों के अंतर के कारण जो बातें ओझल थीं, वह भी साफ हो रही हैं।हम कहाँ से कहाँ भटक गये इसकी भी अनुभूति गहराई से होती है।अभी लगातार पढना जारी है।लाँकडाउन और कोरोना की आपदा में राजनजी का यह उपन्यास अपने और अपनी धरती को समझने का अवसर देता है।
    हो सकता है कि उपन्यास के अंत तक जाते-जाते कुछ तथ्यों से असहमति भी हो,लेकिन विश्वास है कि “लक्ष्यों के पथ पर ” निरंतर आगे बढने की दृष्टि और ऊर्जा इससे अवश्य मिलेगी।

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