‘कुंडलिया छंद : एक विवेचन’ नामक इस पुस्तक को तैयार करने का उद्देश्य प्रबुद्ध समीक्षकों, पाठकों और विश्वविद्यालयों के आचार्यों का ध्यान इस विधा की ओर आकृष्ट करना है क्योंकि इस विधा की तरफ जिस रूप में ध्यान जाना चाहिए, नहीं जा रहा है। इसका प्रमुख कारण शायद गवेषणात्मक रूप में कार्य का अभाव है। इस कृति में सम्मिलित लेख संख्या एक से चार तक को विरासत खण्ड के रूप में देखा जा सकता है और लेख संख्या पांच से अंतिम लेख को समकालीनता के अंतर्गत रखा जा सकता है। लेखों के लिए समकालीन कुंडलियाकारों के छंदों को आधार बनाया गया है।
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