कुमुद अनुन्जया की कविताएँ सुगठित एवं विचारणीय हैं। यह इनका दूसरा कविता संग्रह है, तथापि नवलेखन सा नहीं जान पड़ता है। इसके अंदर स्त्री है जो स्त्रीत्व के सभी कारकों को ढूँढती रहती है। स्त्री के बचपन की उन्मुक्तता से, यौवन के परिवर्तनशील विद्रूप से धैर्य की पराकाष्ठा से स्वयं को प्रश्न करती रहती है और एक वक्त आता है जब अंतर्मन से उत्तर पा कर तुष्ट हो जाती है। यही तो स्त्रीत्व है। स्त्री जो बेटी है, जिसकी अहमीयत कम है पर उसके बिना कहाँ विस्तार है? वह गंगा है वह तुलसी है…
कुमुद एक स्त्रीवादी कवयित्री है, जो सारी पीड़ाओं को समझती है। तभी तो नारी को नदी का रूप समझती है। स्त्री सबसे अधिक दलित होती है। उस उच्च वर्ग की भी स्त्री जिसे सब सुख-सुविधा प्राप्त है कि स्त्री आज भी सामंतवादी जंजीर से बंधी है। बानगी देखें-
“बच गई थी बस/चार दीवारी के भीतर/कुल मर्यादा को जोगती दुनिया से बेखबर/प्रकृति से दूर/ नियति के नजदीक/अति दलित सामंत स्त्रियाँ।”
कुमुद की नारी केंद्रित कविताएँ समाज की विसंगतियों का दिगदर्शन भी कराती हैं।
विडंबना की ओर इंगित कर कहती हैं जिसे हम कील समझते हैं दरअसल वह धारण कर रहा होता है वाहकों को। अर्थात दर्द, दुख, पीड़ा को किसी भी युद्ध और शांति का मूल तो सब मान लेते हैं पर मूल की भी कोई-न-कोई वजह तो होगी।
“क्योंकि सफलता का सेहरा/हमेशा इमारतों और युद्धपोतों के सर रहा/युद्ध और शांति में उपेक्षित कराहता कील/ अपना कर्तव्य छोड़ नहीं सकता।”
कुमुद का यह संग्रह कठपुतली से कीर्तिशा विश्वास जगाता है कि कवयित्री आगे अधिक गंभीर एवं व्यापक विषय पर ज़रूर लिखेंगी। इन्हें साधुवाद।
–पद्मश्री उषा किरण खान
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