कहो हे तथागत! (Kaho He Tathagat / Gyanendra Mohan Gyan)

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ज्ञानेन्द्र मोहन ‘ज्ञान के इस ग़ज़ल संग्रह ‘कहो हे तथागत!’ के गुलदस्ते में जो फूल शायर ने सजाये हैं उन सबमें केवल सुगंध ही नहीं है बल्कि कुछ कांटे वाली भी हैं। कई ग़ज़लें ऐसी हैं जो उनकी स्वानुभूति से उपजी हैं। जिन्हें उन्होंने जिया है, भोगा है। सामाजिक विसंगतियों को उकेरने में उन्हें महारत हासिल है और रिश्तों पर चढ़े मुखौटों की धज्जियाँ बिखरा देना उनकी विशेषता। यही महारत, यही विशेषता उनके इस ग़ज़ल संग्रह में देखी जा सकती है, समझी जा सकती है। उनका अनुभव विराट है। उनकी ग़ज़लों की पृष्ठभूमि में यही अनुभव जब शब्दों के माध्यम से ग़ज़ल का रूप लेता है तो एक अद्भुत रचना जन्म लेती है। उनकी रचनाओं को समझना ही नहीं, आत्मसात करना भी सरल है क्योंकि उनमें शब्दों की क्लिष्टता नहीं है, अर्थों में पेचीदगी नहीं है और भावों में घुमाव नहीं है। इस सबके चलते हर ग़ज़ल आसानी से सम्प्रेषित हो जाती है। यद्यपि शायर कुछ ग़ज़लों में प्रेमी प्रेमिका जैसी शायरी भी करता है लेकिन मतले के बाद जब कलम आगे बढ़ती है तो जिगर का दर्द कागज़ पर उतर आता है और बात श्रृंगार के पक्ष वाले मांसल प्यार के जंजाल से आगे बढ़ जाती है। इतनी आगे बढ़ जाती है कि शायर चाहकर भी वापस प्रथम बिंदु पर नहीं पहुँच पाता। वैसे यह कहना अधिक ठीक होगा कि उसका अनाहूत अनुभव उसके उन भावों को क्षतविक्षत कर देता है जिस पर खड़े हो कर उसने मतला लिखा था। समूचा ग़ज़ल संग्रह जीवन की वास्तविकता से जुड़ा है। पाठक को लग सकता है कि यह तो उसका अपना दर्द है। यही इस ग़ज़ल-संग्रह की विशेषता है और इसी विशेषता ने ग़ज़ल संग्रह को और भी महत्वपूर्ण बना दिया है।

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