‘गाँव बुलाता है’ शब्द के एक ऐसे फ़कीर का सफ़रनामा है, जिसने अहसास के तमाम अनछुए पहलुओं को अपने आसपास से उठाकर पूरी महारत के साथ गीत कर दिखाया है। ये हुनर उन्हीं आभिजात्य गीतकारों के पास होता है जिन्हें वागेश्वरी स्वयं चिन्हित करतीं हैं। दुनियावी कोलाहल से दूर एक आदतन गीतकार की हैसियत से क़ायनात के हर पहलू में गीत तलाश लेने की जातीय कुव्वत श्री मोहन पुरी के गीत सर्जन पर सिर चढ़कर बोलती है। आधुनिक साहित्य में या यूँ कहूँ वर्तमान साहित्य में गीत का बोलबाला नब्बे के दशक तक रहा उसके बाद नई कविता या नवगीत के नाम पर गीत नाम के ॠषि वर्जनाओं के दण्डकवन में क्षुद्र हवाओं के चलते स्वाध्याय के शब्द-यज्ञ नहीं कर पाये। तब गीत की यशकीर्ति दो चार कीर्तिशेषों के हाथों में शेष रह गयी, मगर इक्कीसवीं सदी के प्रथम चरण के बाद एक के बाद एक निष्णात गीतकार आए और गीत का वही कारवां पुनः बनता चला गया… मोहन पुरी ना तो किसी मानीख़ेज लाइब्रेरी से निकला स्नातक है और ना ही किसी गीत घराने का पल्लवित पुष्प है, राजस्थान के मेवाड़ अंचल के श्रांत-विश्रांत गाँव की ठेठ ठसक से सना यह गीतकार अपने मनन चिंतन पर किसी भी पूर्ववर्ती कहन को हावी नहीं होने देता है। विवेच्य पुस्तक के आद्योपांत परिशीलन के उपरांत सम्पूर्ण क़िताब निराली सोच और गढ़न की क़ाबिलियत का मन-मंदिर दिखाई देती है।
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