चेहरे का जयपुर हो जाना (Ka Jaipur Ho Jana / Garima Saxena)

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गरिमा सक्सेना हिन्दी गीतों के लिए अब जाना-पहचाना नाम है। उनके प्रेम गीतों का रेशा-रेशा गहरे प्रेम के रंग में रँगा हुआ है… स्वाभाविक लगाव व वन अपनेपन से उपजे उलाहने और अधिकार से आलिप्त… जो, पाठक को आकर्षित करता है. बाँधता है और अभिव्यक्त शब्दों के पार, उत्कट अनुभूतियों व जीवन्त बिम्बों के नहीं, के इतने निकट ले जाता है कि चित्त उन्हें जीने हेतु विवश तथा उदग्र हो उठता है। बेशक, कया यह प्रेम कई स्थलों पर, राधा और कृष्ण के पावन प्रेम की भाँति रेखांकित किया गया है, लेकिन, न तो यह भक्ति-सृजन से संचालित होता है और न ही रहस्यवाद के तत्वों से। सृजित परिवेश वायवीय न हो कर यथार्थ आधृत है। बहुत हद तक घरेलू। यह स्वकीय रूप और घरेलूपन ही, अपनी सबलता के साथ इधर उभरी युवा नवगीत कवयित्री गरिमा सक्सेना को पृथक् पहचान देता है। तुलसी, बिंदी, काजल, महावर, नथ, बाली या लौंग, पकौड़ा, अदरक वाली चाय जैसे शब्द व उनके प्रयोग सन्दर्भ कवयित्री को गृहस्थ-संयुत प्रेम और विश्वास को आकार देते हैं। साथ ही कम्प्यूटर, लैपटॉप, ग्राफ, फ्लैशबैक, क्यूट जैसे शब्दों व उनके प्रयोग सन्दर्भ, गरिमा सक्सेना के अधुना रूप को शब्दांकित करते हैं।

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