अनिरुद्ध प्रसाद विमल एक उद्देश्यप्रिय साहित्यकार हैं। वैसे भी वह साहित्य, साहित्य नहीं है जिसका कोई सामाजिक उद्देश्य नहीं हो। उद्देश्यपरक और सामाजिक सरोकारों से जुड़े होने के कारण ही लियो टालस्टाय, ऑस्कर वाइल्ड, चार्ल्स डिकेन्स, प्रेमचन्द, रेणु का कथा साहित्य आज भी प्रासंगिक, पठनीय और कालजयी हैं।
‘शुद्ध कहानी आंदोलन’ 1992 के प्रवर्तक के रूप में इन्होंने साहित्य में जिस भारतीयता की तलाश पर बल दिया था, वह इनके साहित्य में प्रचुरता के साथ उपलब्ध है। किसी देश का विकास उसकी संस्कृति के अन्तःस्त्रोत से ही संभव है। इसके लिए ग्रामीण परिवेश पर गहरी दृष्टि और पकड़ बनाये रखना जरूरी है। राष्ट्रीय चेतना की अनिवार्यता भी अनिरुद्ध प्रसाद विमल के साहित्य का मजबूत पक्ष है जिसके अभाव में हमारा भारतीय समाज आतंक, संवेदनशून्यता और अमानवीय मूल्यों का शिकार हुआ है। इन सभी बातों की झलक उनके इस बाल उपन्यास ‘चन्दन वन में राकस’ में भी पूरी मुस्तैदी के साथ अभिव्यक्त है। संदेश और समाधान इनके साहित्य को सहज संप्रेषणीय और प्रभावी बनाते हैं। उनके लिए बाल स्वरूप राही जी लिखते हैं “अनिरुद्ध जी ने बड़ों की कविताएँ लिखने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है, परन्तु इधर उनका रुझान बाल-कविता की ओर भी बढ़ा है और वह एक उल्लेखनीय बालकवि की भूमिका निभा रहे हैं।” ऐसा यहाँ भी है। वे बच्चों के लिए लिखते समय मानो स्वयं बालक हो जाते हैं। बच्चा होकर बच्चों के लिए लिखने के साथ उन्होंने पर्यावरण संकट जैसे गंभीर मुद्दे को जिस फैंटेसी के साथ प्रस्तुत किया है कि देवकीनन्दन खत्री के ‘चन्द्रकान्ता सन्तति’ की तरह ‘चन्दन वन में राकस’ को भी अविस्मरणीय अमर योगदान का अधिकारी बना देता है। मुझे विश्वास है कि अंगिका बाल साहित्य में अनिरुद्ध प्रसाद विमल के इस उपन्यास की गूंज बराबर बनी रहेगी।
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