सत्यम के दोहों का संसार विविधताओं से परिपूर्ण है, यह विविधता पारंपरिक भी है और समसामयिक भी। इस पुस्तक की भावभूमि के सहभागी किसान, मजदूर, बेरोज़गार, प्रवासी, आदिवासी. वृद्ध, दिव्यांग आदि हैं जो समाज में उपेक्षित रहे हैं। उत्तर-आधुनिकता के इस दौर में नैतिक मूल्यों का अवमूल्यन, टूटते-बिखरते रिश्ते, पीढ़ीगत संघर्ष, विलुप्त होती गँवई संस्कृति, अकाल व महामारी, पर्यावरण, बेरोज़गारी तथा अस्मितामूलक सवालों के साथ-साथ भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को बचाने की ललक इनकी लेखनी में है। ग्लोबल-गाँव में विलुप्त होती लोक-संस्कृति, कुटीर उद्योग, लोकभाषा, लोककला, लोकनृत्य आदि को बचाने की कोशिश इनके दोहों में मिलती है। भाषा और शैली की साफ़गोई इनके दोहों को सीधे आमजन से जोड़कर कौतूहल पैदा करने की क्षमता रखती है। पुस्तक ‘बिखर रहे प्रतिमान’ में आधुनिकता, यथार्थ और परंपरा की त्रिवेणी एक साथ बहती है। सत्यम, मानवीय संवेदना, परिवेश और करुणा के जागरूक कवि हैं। मातृभाषा हिंदी से प्रेम अत्यंत जीवंत जान पड़ता है।
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Author | सत्यम भारती |
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Format | Paperback |
ISBN | 978-93-95432-24-5 |
Language | Hindi |
Pages | 112 |
Publisher | Shwetwarna Prakashan |
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