बदलते परिवेश में हिन्दी ग़ज़ल (Badalate Parivesh Mein Hindi Gazal / Dr. Bhawna )

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हिंदी ग़ज़ल के पास भाषा का अपना रचाव है, उसके अपने मुहावरे हैं और अपना अलग कहन का अंदाज़ भी। दुष्यंतोत्तर ग़ज़लकार ने इसे आत्मसात करते हुए नए मिज़ाज की ग़ज़लें कहीं हैं, जो दुष्यंत की परंपरा के तो हैं लेकिन कई मायने में उससे अलग भी। दरअसल जैसे हर एक इंसान की शक्ल अलग होती है। उसकी शारीरिक बनावट में अंतर होता है, पर उसके निर्माण में कोई अंतर नहीं होता। सभी के शरीर की कोशिकाएँ, रुधिर और मांस-मज्जा एक-से ही है। उसी प्रकार प्रत्येक रचनाकार की रचना उसकी दृष्टि के सामर्थ्य पर निर्भर है। दुष्यंत के समय के काल और आज के काल में अंतर है। आज टेक्नोलॉजी जीवन पर हावी है। मनुष्य पहले से ज़्यादा अकेला और तनावग्रस्त है। विकास की अंधी दौड़ ने मनुष्य की दिनचर्या को बुरी तरह प्रभावित किया है। आकांक्षाएँ आज जीवन से बड़ी हो गयी है। राजस्थान का कोटा जैसा शहर डॉक्टर, इंजीनियर बनाने की फैक्ट्री में तब्दील हो गया है। ऐसे में, जो बच्चे सफल नहीं हो पाते, आत्महत्या कर लेते हैं। अवसाद का ऐसा भयानक दौर पूर्व में कभी नहीं था। आज के ग़ज़लकार समाज में हो रहे तमाम उथल-पुथल को बारीकी से देखते और समझते हैं। उन्हें अपनी ज़िम्मेदारी का अहसास है। ये रचनाकार ग़ज़ल के माध्यम से समाज में हो रहे परिवर्तन को न केवल बख़ूबी रेखांकित कर रहे हैं बल्कि उसका निदान भी बता रहे हैं। साहित्य का काम भी तो यही है।

Author

Dr. Bhavna

Format

Hardcover

ISBN

978-81-19590-71-1

Pages

208

Language

Hindi

Publisher

Shwetwarna Prakashan

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