डॉ. पुरुषोत्तम कुमार प्रेम, प्रकृति और जन सरोकार के कवि हैं। इनकी कविताओं में प्रेम जहाँ अपने एक अलग रूप में व्यंजित होता है वहीं प्रकृति मानवीय शोषण और अपने रंग तत्व के साथ उपस्थित होती है। प्रेम और प्रकृति में नए-नए प्रतीक-विधान मिलते हैं। यह नवीन प्रतीक-विधान जन-जीवन तथा जीवन यथार्थ से गृहीत हैं तथा इन्होंने शब्दों को अभिधामूलक लक्षणा की अपेक्षा व्यंजना का प्रयोग अधिक किया है। जनमानस के बीच प्रयुक्त होने वाले शब्दों के प्रति आग्रहशील हैं। जन सरोकार की कविताओं में सामाजिक परिवेश से अनुभूति ग्रहण कर उनकी तमाम, पीड़ा, निराशा, दर्द आदि को समाज को उसी व्यापक पृष्टभूमि में संपृक्त कर देते हैं। सिर्फ़ इतना ही नहीं जनता के दुख-दर्द और वर्ग वैषम्य का केवल चित्रण ही नहीं करते वरन उन्हें मिटाने के लिए गतिशील भी रहते हैं।
स्वभाव से इस कोमल कवि के विचारों की गतिमयता मार्क्सवादी साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है। हम कह सकते हैं डॉ. पुरुषोत्तम कुमार केवल अपने अन्तर्मन से ही नहीं अपितु सामाजिक जीवन तथा परिवेश से प्रामाणिक होकर कविता का सृजन करते हैं।
कुल मिलाकर संग्रह की कविताओं में व्यष्टि और समष्टि का समन्वय अधिक प्रखर दिखाई देता है। भाषा और शैली स्तर पर प्राकृतिक दृश्य-बन्ध की एक भव्य छटा मिलती है।
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