सहमति, असहमति, उपदेश, नीतिकथन और अनुभवसरणी की लघुतम अभिव्यक्ति का छंद दोहा हिन्दी लोकमानस का अपना जातीय छंद है। कबीरदास, तुलसी, रहीम और बिहारी लाल के दोहों ने वैचारिक आवेग और कलात्मक सुगठन के उच्चतम प्रतिमान प्रस्तुत किये हैं। पाश्चात्य आधुनिकता की आँधियों के तहस-नहस के पूर्व तक उपर्युक्त कवि चतुष्टय के दोहों ने प्रायः हजार वर्षों तक भारतीय जनजीवन के संचालक मूल्यों की भूमिका निभायी है।
आधुनिक समकालीनता के अंतर्द्वन्द्वों की अभिव्यक्ति में भी इस छंद ने पूरे वैविध्य के साथ अपनी सक्षमता प्रमाणित की है। इस क्रम में गणेश गम्भीर के दोहों ने समकालीनता की छलपूर्ण मूल्यहंता प्रवृत्तियों के रेखांकन का दायित्व स्वीकार किया है।
हिंदी कविता की वर्तमान समकालीनता में भारतीय काव्यात्मक मूल्यों के विरुद्ध कथनों की आक्रामकता और अधिक तीव्र होती दिख रही है जिससे जनमानस आहत महसूस करता है और कविता पाठक से कटती गयी है। गणेश गम्भीर के ये दोहे समकालीनता को उसके पूरे यथार्थ के साथ संवलित करते हैं। इनका यथार्थ स्पष्टवादिता और ईमानदारी से युग के अंतविरोधों के प्रति सचेत करता है और मानसिक पराधीनता के रीतिवाद से मुक्ति का मार्ग दिखाता है। भारतीय जनजीवन को रुग्ण और रुद्ध करने वाली राजनीतिक चेतना और काव्यात्मक मूल्यों के समक्ष ये दोहे समकालीनता के परिचय में एक नयी उर्वर गतिशीलता की संभावना बनाते हैं।
-ब्रजेश पाण्डेय
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