कोई कविता क्यों करता है? कविताएँ क्यों लिखी जाती हैं? आधुनिक विश्व में और भारत में भी कविताओं का असर होता क्यों नहीं दिख रहा और जब नहीं हो रहा है फिर यह बेअसर काम फिजूल ही क्यों कर रहे हैं लोग? यह प्रश्न बार-बार पूछा जाता रहा है। वे लोग जो भाषा को समझते हैं और समझ पाते हैं भाव को, दुनियाभर की तकलीफों से, जकड़न से जूझती और छूटने की कोशिश करती आबादी की एक सामान्य समझ बनते-बनते एक खास किस्म की अशरीरी इंटेसिटी आने लगती है। शायद एक बिलकुल खास तरह की इंटेंस मैस्क्यूलिनिटी। फिर अचानक फूट पड़ती हैं। वे मर जाएँ यदि न फूटें। फट पड़ेंगे। फिर न जाने वैसे कितने लोग जिन्हें पता नहीं होता कि दरअसल हो क्या रहा है, चल क्या रहा है उनके भीतर। पढ़ते हैं कोई भाषा, दुनिया की किसी ज़बान में बड़े हो रहे लोगों की बात और अचानक उन्हें लगता है कि कोई दर्द का रिश्ता जुड़ पड़ा है और पहाड़ ढहने लगता है। यदि दुनिया के किसी कोने में ढह रहे हैं पहाड़, फूट रहे हैं लोग। भाषा काम कर रही है, काम कर रही है कविता।
Author | Rahul Kumar 'Devvrat' |
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Format | Paperback |
ISBN | 978-81-961907-5-0 |
Language | Hindi |
Pages | 76 |
Publisher | Shwetwarna Prakashan |
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