यह संकलन विकलांगता विमर्श के प्रति प्रतिबद्धता के साथ ही सकारात्मकता, सृजनात्मकता सामूहिकता, सदाशयता की अनूठी मिसाल है।
समाज साहित्य की प्रयोगशाला होता है या साहित्य समाज की परखनली कहना कठिन है पर इतना तो निश्चित ही है कि साहित्य समाज में हो रहे परिवर्तनों को मानक सूचकांक अवश्य होता है। परिवर्तन कभी सतह पर तैरते हैं तो कभी गहराई को नापते हैं। कभी किसी समकालीन आंदोलन की आवाज़ बनते हैं तो कभी सुगबुगाते आंदोलन का उद्घोष करते हुए, कभी हमराह साथी से, तो कभी पथप्रदर्शक सारथी से, पृष्ठभूमि चाहे जो रही हो, कारण चाहे जो हों, परिवर्तन व्यवस्था में बदलाव की आश्वस्ति अवश्य देते हैं।
इस कहानी संग्रह के भिन्न भिन्न विकलंगताओं से जूझता हुआ हर पात्र अपनी कहानी मानों स्वयं कह रहा है। वे पात्र इतने सशक्त हैं कि वे कहानीकार के मन के दरवाज़ा तब तक खटखटाते रहते हैं जब तक वे उनकी कहानी कह नहीं देते है। यह संकलन निश्चय ही विकलांगता विमर्श की राह में मील का पत्थर साबित होगा।
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