हिन्दी में पद्य की भाषा को गद्य की भाषा के मेल में लाने के लिए जिन लोगों ने जीवन भर संघर्ष किया उनमें मुज़फ्फ़रपुर निवासी बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री का नाम अग्रगण्य है। ब्रजभाषा के स्थान पर खड़ी बोली ही कविता की भाषा बने खत्री जी के जीवन का यही एक मात्र उद्देश्य था। वस्तुत: यह उस युग विशेष को एक अपरिहार्य आवश्यकता थी क्योंकि ब्रजभाषा के जड़ीभूत मध्यकालीन संस्कार उस नवजागरण युग को संवेदनाओं की अभिव्यक्ति में सहायक नहीं हो रहे थे। गद्य का आविर्भाव उस युग की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना थी। गद्य के लिए भाषा के रूप में खड़ी बोली हिन्दी को स्वीकार करने में व्यापक रुचि प्रदर्शित की गई लेकिन काव्य भाषा के रूप में ब्रजभाषा का वर्चस्व बना रहा। इस कारण उस युग के साहित्यकारों में विरोध का विचित्र सामंजस्य दीख पड़ा। एक हो लेखक गद्य खड़ी बोली में लिखता था और कविता ब्रजभाषा में करता था। कुछ लोगों ने इस वैचित्र्य को गौरवान्वित करने का प्रयास किया लेकिन यह तब हिन्दी कविता के विकास को अवरुद्ध करने को कीमत पर हो रहा था।
प्रस्तुत पुस्तक का स्वरूप अपने अधिकांश में परिचयात्मक है। हिन्दी साहित्य के इतिहास के इस महत्वपूर्ण मगर उपेक्षित प्रकरण की यथा तथ्य और सम्यक जानकारी विद्वत् समाज को हो, जिसके आधार पर एतद् संबंधी गहन अनुसंधान और विस्तृत विवेचन की भूमिका तैयार हो इस – लघु प्रयास का एक उद्देश्य यह भी है।
Reviews
There are no reviews yet.