गीत गीता (Geet Geeta / Dr. Shyamsanehilal Sharma)

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‘गीता’ कालजयी शास्त्रीय ग्रंथ है। वह हर युग के सम्मुख खड़ी चुनौतियों का समाधान करके मानव का मार्ग प्रशस्त करती रही है और करती रह सकती है। वैष्णव भक्ति के सभी संप्रदायों के आचार्यों ने अपने-अपने संप्रदाय की परंपरा का शास्त्रीय उत्स सिद्ध करने के लिए प्रस्थानत्रयी की ‘संहिताएँ’ लिखकर अपने-अपने संप्रदायों को शास्त्रीय परंपरा से जोड़ा है और अनेक कवियों ने इसके काव्यानुवाद करके गीता के तत्त्व ज्ञान को सरल और सुग्राह्य बनाकर जन-जन तक संप्रेषित करने का प्रयास किया है, परंतु डॉ. श्यामनेहीलाल शर्मा द्वारा किया गया गीता का छंदबद्ध भावानुवाद गीत गीता इन सब में अन्यतम और अद्भुत है, क्योंकि वे अप्रतिम वैदुष्य और ‘नवनवोन्मेषशालिनी प्रज्ञा’ के संवेदनशील कवि हैं। उनके द्वारा किया गया गीता का भावानुवाद ‘गीत गीता’ उनकी मौलिक प्रतिभा के साथ भाषा और छंद पर उनके निर्बाध अधिकार का परिचायक है। ‘गीत गीता’ को कवि ने श्रीमद्भगवद्गीता का पुनर्सृजन यों ही नहीं कहा है। वस्तुत ‘गीत गीता’ में गीता सीधे-सीधे भावानुवादित नहीं होती, अपितु कवि अनाया छंद में प्रथमत: ‘स्वर्णिम प्रभात’ शीर्षक के अंतर्गत तीन अंतरा वाले मधुर गीत के साथ इस महाग्रंथ की भूमिका प्रस्तुत करता है। जिसमें “श्वेताश्व सप्त स्यंदन पर निज सारथी सहित”, “रश्मिरथी का शुभागमन”, “तम की सत्ता का ज्योतिपुंज में परिवर्तन” करता हुआ केवल भौतिक तम की छाती को ही विदीर्ण नहीं करता, अपितु ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ का उद्घोष भी करता प्रतीत होता है।

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