यह ‘तरु-कथा’ सामान्य घटनाक्रम का प्रतिफलन नहीं है। किसी की डायरी के एकान्त में घुस कर उसे विश्लेषित करने के अपने ही ख़तरे हैं। व्यक्ति को जानने-समझने के लिए संवेदनशीलत मन के अतिरिक्त दूसरे के गहन में प्रवेश कर पूरी सहानुभूति के साथ उसे अनुभव करना, उसकी निजता को ग्रहण कर उसके परिवेश के साथ ताल-मेल बैठाते हुए जीवन्त करना; मेरे लिये एक चुनौती थी।
उसने कहा था- “मेरा विगत, जीवन की विकृतियों का कटु अध्याय है। उन पृष्ठों को खोलते मुझे स्वयं घबराहट होती है। सत्य बहुत विचित्र होता है, जिसे सहज रूप से स्वीकारा नहीं जा सकता…”
मैंने प्रयास किया है कि सत्य को उसके सहज रूप में स्वीकार किया जा सके। डायरी पढ़ते हुए… एक चेहरा मेरे सामने आता रहा। उसे उसके परिवेश मे बैठाने की कोशश करते हुए मैंने यह समानान्तर दुनिया रची। काफ़ी स्वतंत्र छोड़ दिया उसे कि अपने सहज रूप में संचरण कर सके। उसी का परिणाम है यह तरु-कथा। अर्थात् – ‘एक थी तरु।’
अपना एकान्त मुझे थमा कर वह चली गई थी। जैसे कह गई हो ‘अब तुम्हीं जानो।’
मैं उस एकान्त से उसे बाहर प्रकाश में ले आई हूँ।
– प्रतिभा सक्सेना
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