‘दो चाकों के बीच’ रेखा भारती मिश्रा का पहला कहानी संग्रह है, जिसमें पंद्रह कहानियाँ संकलित हैं। ये कहानियाँ पितृसत्तात्मक समाज के अनेक अवगुंठनों, जटिलताओं और हर हाल में अपनी नियति को सिर झुकाकर माननेवाली स्त्रियों को केंद्र में रखकर लिखी गई हैं जो अंत में अपनी राह तलाशती हैं। इस लिहाज़ से ये कहानियाँ चौंकाती नहीं हैं, पर इनके अंदर जो ताप है, वह महसूस होता है।
Books (2 customer reviews)
दो चाकों के बीच (Do Chakon Ke Beech / Rekha Mishra Bharti)
Rated 5.00 out of 5 based on 2 customer ratings
₹249.00
Author | Rekha Bharti Mishra |
---|---|
Format | Paperback |
ISBN | 978-81-979684-5-7 |
Language | Hindi |
Pages | 120 |
Publisher | Shwetwarna Prakashan |
2 reviews for दो चाकों के बीच (Do Chakon Ke Beech / Rekha Mishra Bharti)
Add a review Cancel reply
Related products
मेरा बचपन एवं सम्पूर्ण बाल साहित्य / आचार्य शिवपूजन सहाय (Mera Bachpan Evam Sampoorna Baal Sahitya)
₹299.00Original price was: ₹299.00.₹230.00Current price is: ₹230.00. Add to cartBuy Nowमेंहदी रचे हाथ (Menhadi Rache Hath / Chandragat Bharti)
₹200.00Original price was: ₹200.00.₹150.00Current price is: ₹150.00. Add to cartBuy Now
अनुभा गुप्ता –
हम आज आधुनिक में जी रहे हैं जहां डिजिटल का जमाना है चांद पर भी घर बनाने लगे हैं बहुत कुछ आधुनिकता कहकर हम जी रहे हैं लेकिन अभी भी लगभग हर घर में मानसिकता स्त्रियों के लिए वही पुरानी ही है जहां बहुत ज्यादा स्त्रियों का सम्मान है वहां भी कुछ कुंता है कुछ असमाणित तत्व देखने को मिल ही जाते हैं स्टाफ को एक स्त्री कैसे रहती है और उसका मां पर क्या बिकता है क्या सोचती है इसके बारे में लेखिका श्रीमती रेखा भारती मिश्रा जी ने बहुत ही अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया है।
vandana bajpai –
रेखा भारती मिश्रा जी की कहानियाँ बाहरी विकास के रुपहले आवरण के बीच देश के गांवों और छोटे शहरों की स्त्री की पीड़ा की बानगी हैं। ये स्त्री परंपराओं के नाम पर बांधी गई रूढ़ियों के मध्य अपने लिए आसमान तलाशती स्त्री पितृसत्ता के दो चाकों के बीच पिस रही है। ये चाकें पितृसत्ता और उसकी पैरवीकार स्त्रियों द्वारा निर्मित हैं। फिर भी स्त्री संघर्ष चुनती है। कहानियों के सकारात्मक अंत चुपचाप जूझती स्त्रियों को एक दिशा देते हैं। हमें ‘अब पुरुष विमर्श की आवश्यकता है’ या ‘स्त्री विमर्श भटक गया है’ के शोर के बीच में ये कहानियाँ पढ़ी जानी चाहिए ताकि पता चले कि महानगरीय जीवन के अपवाद के मध्य स्त्री अभी भी कहाँ खड़ी है। रेखा जी को महत्वपूर्ण कथ्य और सधे हुए लेखन से सजे हुए इस संग्रह के लिए बहुत बधाई।
वंदना बाजपेयी