“स्त्री कभी बुद्ध नहीं बन सकती
तुम्हारा कैवल्य भले ज्ञान हो
मेरा कैवल्य मात्र प्रेम है!”
यही मूल स्वर है इस ‘दित्सा’ नामक संग्रह का। इसलिए अपने आप से उत्कट प्रेम है, यही जीजिविषा है। यह सच है जो जीवन से प्यार करेगा समस्त चराचर से करता रहेगा। प्रेम निर्लिप्त है उसे कोई अभीप्सा नहीं परंतु देह मन की अभिलाषाएंँ होती हैं। देह को भौतिक रूप से प्रेम किया जा सकता है मन के विषय में वह देह कहां समझ पाता है कि उसे क्या चाहिए? वह कितना तृप्त है कितना अतृप्त?
“तुम देह की परिधि में घूमते रहे,
मेरे मन का कौमार्य अछूता ही रहा!”
‘दित्सा’ संग्रह राग विराग की अनुपम संगति लेकर चलता है परंतु मोह का तंतु नहीं जाता। एक ऊर्जस्व कवि की ईप्सा है, धैवत का संधान है, भस्मांग राग है। कवि ने जहां कहीं विराग से व्याख्यायित करने की कोशिश की राग उचक कर आ गया समक्ष।
इतनी कसी हुई सुंदर कविता के लिए साधुवाद!!
-उषा किरण खान
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