हिन्दी काव्य इतिहास के पाँचवे-छठे दशक में जब कविता अपनी अनुभूति और अभिव्यक्ति में पराई, अजनबी तथा आत्मालाप और आत्मस्फीति से फेनिल-बदरंग हो रही थी तब जो कवि अपनी ज़मीन अपने परिवेश, अपनी लय, अपनी धूप और अपने हवा-पानी से रचे-बसे, कहन की नयी भाव-भंगिमा के साथ कविता को पुनर्नवा करते हुये सामने आए उनमें अनूप अशेष पहली पंक्ति के और अद्यतन अनूप हैं।
नवगीत-काव्यधारा के इस प्रचलन-दौर में जब अधिकांश कवि छन्द साधना को ही कसौटी मानकर काव्य-कर्म में लीन हैं तब अपने रचाव को लोक जीवन की वल्गाओं से कसे हुए अनूप अशेष ‘धूप के रथ पर’ नए ताप और उसी परिचित तेवर के साथ मौजूद हैं जो उनकी अपनी अलग पहचान रही है। स्वतंत्र भारत के ग्राम्य जीवन का उत्सवधर्मी मन और अपने ही तंत्र की कुटिलताओं से संतप्त लहुलुहान तन, विनष्ट होती प्रकृति और उसी ढर्रे पर मानव और मानवेतर प्राणियों के साहचर्य का सेतु रही लगातार छीजती हमारी कृषि संस्कृति से लेकर विकास के ठीहों-महनगरों और उनके रहवासियों-नागरमनों की सूक्ष्म से सूक्ष्म अनुभूतियाँ इन रचनाओं में दर्ज हैं। यदि कविता अपने समय-साक्ष्य का दस्तावेज़ होती है तो इस संग्रह की एक एक रचना इस अहसास की ज़बान है जिसके निशान, इतिहास में इतनी गहराई और गर्माहट में शायद
ही मिलें।
इन रचनाओं का कोई राजनीतिक एजेन्डा नहीं है; संभवतः इनमें वैसा बड़बोलापन और क्रान्ति के छद्म बोल भी नहीं हैं, जैसा काव्य-परिसर में इन दिनों दिखाई पड़ रहा है किन्तु इनमें एक समाजवादी स्वप्न है जहाँ गाँधी के अन्त्योदय, विनोबा के सर्वोदय और लोहिया के राष्ट्रोदय की महत् आकांक्षा समाई हुई है। कहीं दूर प्रान्तर से अपनपौ में टेरते हुए ये नवगीत एक ऐसे समाज की उम्मीद जगाते हैं जहाँ नाते-रिश्ते सघनता से बचे रहें, संवेदना, सहानुभूति, सहयोग और सहिष्णुता का भाई-चारा बना रहे, जहाँ चकाचक्य-चौंधियाते विनाश के रास्ते को विकास का सूचक न माना जाय और एक ऐसा खुला आसमान हो जहाँ बच्चों और स्त्रियों के सतरंगे सपने पक्षियों की उड़ानों के साथ पेंग उठाते रहें। इस दौड़ते-फाँदते और हाँफते समय में इस संग्रह की रचनाएँ जितना वर्तमान का बोध कराती हैं उतना ही वे नए भोर के लिए आशा जगातीं हैं और आश्वस्त करती हैं और कविता की यही सार्थकता और यही उसका धर्म है।
Author | अनूप अशेष |
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ISBN | 978-81-19231-60-7 |
Format | Hardcover |
Language | Hindi |
Publisher | Shwetwarna Prakashan |
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