अगिनदेहा (Agindeha / Ranjan)

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ज़िन्दगी बाइस्कोप का परदा नहीं, जहाँ कोई बेसुरा तक नहीं होता, जिसे देखो लता और रफ़ी के स्वर में गीत गा रहा है।
और जो लोग ऐसा सोचते हैं कि ज़िन्दगी को हम दुबारा अपनी तरह से लिख सकते हैं वे वाक़ई बड़े भोले होते हैं… ज़िन्दगी को कोई अपनी मर्जी से दुबारा नहीं लिख सकता।
और साहित्य का यह उद्देश्य तो हर्गिज़ नहीं है कि वह शब्दों से जीवन की ऐसी तस्वीर बनाए, जो ज़िन्दगी से ही अलग हो। यह तो आपकी धड़कनें है, संवेदनायें हैं, जीवन के राग और विराग हैं, जो पढ़ते वक्त आपकी शिराओं से गुजरते हुए, आपके दिल और दिमाग़ तक जा पहुँचती है। इसका उद्देश्य न आपको शिक्षा देना है, न मनोरंजन करना।
और जनाब! जब सोचता हूँ, यह ज़िन्दगी आखिर क्या है तो लगता है, यह वह चादर है जिसे हम ताउम्र ओढ़ते और बिछाते हैं। इसमें रोज-ब-रोज सिलवर्ट पड़ती हैं, दाग और धब्बे लगते हैं। हम रोज इसे झाड़ते-फटकते और धोते हैं। कुछ दाग़ हैं कि धुल जाते हैं कुछ रह जाते हैं और फिर से हम इसे पहन लेते हैं… और इसी तरह ज़िन्दगी अनवरत चलती रहती है… चलती रहती है।

Zindagi baaiskop ka parada naheen, jahaan koi besura tak naheen hotaa, jise dekho lata aur rafi ke svar men geet ga raha hai.
Aur jo log aisa sochate hain ki jindagi ko ham dubaara apani tarah se likh sakate hain ve vaaki baDe bhole hote hain… Jindagi ko koi apani marji se dubaara naheen likh sakataa.
Aur saahity ka yah uddeshy to hargij naheen hai ki vah shabdon se jeevan ki aisi tasveer banaae, jo jindagi se hi alag ho. Yah to aapaki dhaDkanen hai, sanvedanaayen hain, jeevan ke raag aur viraag hain, jo paDhte vakt aapaki shiraaon se gujarate hue, aapake dil aur dimaag tak ja pahunchati hai. Isaka uddeshy n aapako shikSa dena hai, n manoranjan karanaa.
Aur janaab! jab sochata hoon, yah jindagi aakhir kya hai to lagata hai, yah vah chaadar hai jise ham taaumr oDhte aur bichhaate hain. Isamen roj-b-roj silavarT paDti hain, daag aur dhabbe lagate hain. Ham roj ise jhaaDte-faTakate aur dhote hain. Kuchh daag hain ki dhul jaate hain kuchh rah jaate hain aur fir se ham ise pahan lete hain… Aur isi tarah jindagi anavarat chalati rahati hai… Chalati rahati hai.

Format

Paperback

ISBN

978-93-91081-24-9

Language

Hindi

Pages

212

Publisher

Shwetwarna Prakashan

2 reviews for अगिनदेहा (Agindeha / Ranjan)

  1. रथेन्द्र नन्हें

    यह मेरा सौभाग्य ही है कि रंजन मेरा बचपन का मित्र है और उच्चकोटि का साहित्यकार है।मुझे गर्व है उस पर।अगिनदेहा का पहला संस्करण तो मैंने देखा भी नहीं था।दूसरा संस्करण पढ़ने का अवसर मिला है। बेहतरीन छपाई और कवर।

  2. Aniruddh Prasad Vimal

    मैं तो शुरू से ही अगिनदेहा का कायल हूँ।यह बड़े घराने का ही सही परंतु करुणा से भरा उपन्यास है और पढ़वा लेने की क्षमता रखता है।एतदर्थ लेखक को हार्दिक बधाई।

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