लघुकथा के आज के उत्कृष्ट और सम्पन्न स्वरूप को देखते हुए यह निश्चित है कि उसका अतीत भी रहा ही होगा। वस्तुतः ऋग्वेद के यम-यमी और उर्वशी-पुरूरवा संवाद, उपनिषदों की कथायें, जातक कथायें, पंचतन्त्र और हितोपदेश की कथायें, विक्रम-बेताल, सिंहासन बतीसी और कथासरित्सागर आदि के लघु आख्यानों को लघुकथा का पूर्वज माना जा सकता है। लोकजीवन में प्रचलित लघुकाय लोककथायें और सन्तों और कथावाचकों द्वारा दृष्टान्त रूप में सुनायी गयीं कथायें भी लघुकथा की पूर्वजा हैं। इस शोधपरक ग्रन्थ में मेरा प्रयास रहा है कि लघुकथा की परम्परा, इतिहास, कथ्य और शिल्प के सभी आयामों पर विचार कर लिया जाय। लघुकथा में वर्णित स्थितियों को भी प्रस्तुत किया गया है तथा मेरा प्रयास यह भी रहा है कि लघुकथा की भाषागत विशेषताओं-शब्द-शक्तियाँ, लोकोक्तियाँ व मुहावरे, वक्रोक्तिमयी कहन-पर भी प्रकाश डाला जाय।
– डॉ. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’
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