हिंदी गजल आज जिस मुकाम पर है, उसे नित्य नई ऊँचाई देने में अनगिन गजलकारों का योगदान रहा है। जैसे हमने पश्चिमी मुल्कों से अनेक विधाओं को स्वीकार कर उसे अपने रंग में ढालकर जनप्रिय बनाया, वैसे ही गजल को भी हिन्दी के रंग में अपना बनाकर उसे जनग्राह्य बनया है। हिन्दी क्षेत्र का मिजाज प्रतिरोध का रहा है। वर्तमान हिन्दी गजल में भी वही स्वर मुखरित होता हुआ जनप्रिय हो रहा है। सड़़क से संसद तक इसका प्रभाव अपना रंग दिखा रहा है। आम जनता तो आम जनता, बड़े-बड़े नेता भी अपने उद्बोधन में शेरों को शामिल कर अपनी अभिव्यक्ति को प्रभावशाली बना रहे हैं। महाकवि नीरज मानते रहे कि गजल न तो प्रकृति की कविता है, न अध्यात्म की, वह हमारे उसी जीवन की कविता है, जिसे हम सचमुच जीते हैं। इसी तरह दुष्यंत कुमार अक्सर कहते हैं कि गजलों की भूमिका की जरूरत नहीं होनी चाहिए। उर्दू और हिंदी अपने-अपने सिंहासन से उतरकर जब आम आदमी के पास आती है, तो उसमें फर्क कर पाना बड़ा मुश्किल हो जाता है। इस तरह भाषा, शिल्प, कथ्य, कहन कौशल हर तरह से दक्ष हो हिंदी गजल ने अपने को इतना जनप्रिय बना लिया है कि भारत में गंगा-जमुनी संस्कृति की धारा उसमें अविरल प्रवाहित होती है।
यही कारण है कि बीते कई वर्षों से हिंदी गजलें ‘नई धारा’ में ससम्मान प्रकाशित होती रहीं। पाठकों-गजलकारों ने ‘नई धारा’ का गजल-अंक प्रकाशित करने का दवाब भी बनाया। आखिरकार हमने सबका सम्मान करते हुए गजलों के गाँव में पर्यटन का मन बनाया और यह अंक आपके सामने है।
-शिवनारायण
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