शंकरमोहन झा एक यथार्थदर्शी कवि हैं। यह यथार्थ अपनी बनावट में परतदार है और कविता में अपनी बुनावट में गझिन। जी ऊबा देने वाला आज का वातावरण कवि को ‘अस्पताली’ लगता है और वह कह उठता है: “जीवन के यथार्थ की यातना / तुम भी झेलते हो और मैं भी / आज इस तरह हावी हो गया है दुख / कि कभी-कभार का / टुकड़ों में बँटा सुख / समूची खाल पर / श्वेत कुष्ठ की तरह / उभर आता है / छुपता नहीं / हर साँस में / समा गया है वर्तमान” साँसों में समाये वर्तमान को लिये कवि दुनिया के गली-कूचों में भटकता है और इन्हीं भटकनों के बीच, अपनी ही तरह से, बोधि प्राप्त करता है। यह बोधि दरअस्ल उसकी भटकनों का हासिल वह बोध है जिसमें गुमनाम सरीखे आदमी की पहचान छुपी है, उसकी पहचान जो समाज के लकदक लिबास पर ‘खटकते पैबंद-सा फबता है’। उस जन की आन्तरिकता की पहचान ही उसकी वास्तविक पहचान है और वह कितनी भव्य है: “जब उसका / कई-कई शताब्दियों सँजोया / सपना भी लुट जाता है / अपनी नैतिकता और निष्ठा / वह तब भी नहीं छोड़ पाता है / सीने पर यदि उसके / निराशा का जिद्दी और अनगढ़ / पहाड़ भी खड़ा होगा / खाई, कीच और दलदल में धँसे कीड़ों-पतंगों से उसका आकार / फिर भी कुछ बड़ा होगा।/… यथार्थ-बोध का ऐसा प्ररूप सम्यक् कवि-दृष्टि की माँग करता है और उसका निदर्शन संग्रह में अनेकशः मिलता है।
— ज्ञानेन्द्रपति
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