संगीता जी ने इन त्रिवेणियों से वर्तमान की विविध विसंगतियों तथा समस्याओं को जिस सहजता से उकेरा है, वह उनकी समर्थ काव्य-समझ का ही परिचायक है। तभी तो त्रिवेणियों के प्रस्तुतीकरण में संवाद-शैली का चामत्कारिक प्रयोग अपने हर तरह के पाठक को विस्मित कर देता है। कवयित्री ने अपने इस शाब्दिक-शस्त्र को आम भाषा तथा उदार भाषा-परम्परा के सचेत अभ्यास से आवश्यक रूप से धारदार बना लिया है। अलबत्ता, भाव-प्रस्तुतीकरण का यह विधान संभव है, अपनी बुनावट में, अपने विन्यास के कलेवर में, कई तरह के अभ्यासों-प्रयासों की लकीर पकड़े बढ़ता दीख रहा हो, लेकिन इस विधान का प्रतिफल वस्तुतः नितांत अनछुआ ही है। प्रस्तुतियों की वैधानिकता अपने विन्यास में अर्थवान भावप्रवणता को सशक्त बनाये रखने की आग्रही है।
यही कारण है, कि इन त्रिवेणियों में आहत-मर्म के उजबुजाये प्रश्न लगातार सूखते जा रहे पारस्परिक व्यवहार के वृत्त की निर्लिप्त भाव-परिधि को अनायास उपालम्भों के तिर्यक-भाव से स्पर्श कर न केवल संवेदित करने की क्षमता रखते हैं, बल्कि मानवीय व्यवहार के आचरण में सायास परिलक्षित होते सपाटपन को एकबारगी तिलमिला भी देते हैं।
Author | संगीता कुजारा टाक |
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Pages | 144 |
Format | Paperback |
ISBN | 978-81-970378-8-7 |
Language | Hindi |
Publisher | Shwetwarna Prakashan |
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