हिन्दी बाल साहित्य विकास के पथ पर तेजी से आगे बढ़ रहा है। बाल साहित्य पर पहला शोधकार्य आशा गंगोपाध्याय ने बांग्ला शिशु साहित्येर क्रम विकास पर 1818 में किया था। इसके बाद एक लम्बे समय तक भारत की किसी भी भाषा में बाल साहित्य पर शोध कार्य नहीं हुआ।
सन् 1968 में हिन्दी बाल साहित्य को पुरोधा और विख्यात बाल पत्रिका के सम्पादक हरिकृष्ण देवसरे ने ‘हिन्दी बाल साहित्यः एक अध्ययन’ पर जबलपुर विश्वविद्यालय, जबलपुर (मध्य प्रदेश) से पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। यह हिन्दी बाल साहित्य पर सम्पन्न होने वाला पहला शोध है। इसके बाद मस्तराम कपूर (1968), ज्योति स्वरूप (1971), श्री कृष्णचन्द्र तिवारी ‘राष्ट्रबन्धु’ (1971), श्री प्रसाद (1973), कुसुम डोभाल (1980) आदि ने विभिन्न विश्वविद्यालयों से हिन्दी बाल साहित्य में शोध कार्य किये और इसे एक नई गति प्रदान की।
वर्तमान समय में हिन्दी बाल साहित्य पर शोध कार्य बड़ी तेजी से चल रहा है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि सन् 2022 तक 211 शोध सम्पन्न हो चुके हैं और लगभग इतने ही शोधकार्य प्रगति पर हैं।
इसी प्रकार एक समय था जब हमारे देश के 10-15 विश्वविद्यालय भी बाल साहित्य पर शोध नहीं कराते थे। किन्तु वर्तमान समय में शायद ही कोई ऐसा विश्वविद्यालय होगा, जहाँ शोधार्थी बाल साहित्य पर शोध कार्य न कर रहे हों।
आजकल विभिन्न प्रकार के विमर्श पैदा हो गये हैं और इन पर शोध कार्य करना एक फैशन बन गया है। ये है नारी विमर्श, कृषक विमर्श, आदिवासी विमर्श, दलित विमर्श, किन्नर विमर्श, श्रमिक विमर्श आदि। मैं इन विमर्शों का विरोधी नहीं हूँ। किन्तु ये सभी विमर्श एकांगी है और एक पक्षीय अध्ययन की बात करते हैं।
उदाहरण के लिए नारी विमर्श अथवा नारी सशक्तिकरण की बात की जाय और इस गंभीरता से अध्ययन किया जाय तथा सरकारी, अर्ध-सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर प्रयास किये जाय तो यह समस्या निश्चित रूप से समाप्त हो जायगी एवं नारी पुरुषों से भी अधिक सशक्त हो जाएगी। यह बात यहीं समाप्त नहीं होगी, बल्कि अब पुरुष विमर्श और पुरुष सशक्तिकरण की आवश्यकता अनुभव की जाने लगेगी।
यही स्थिति सभी विमर्शों की है। अर्थात् ये अस्थाई है। इन सबके विपरीत बाल विमर्श स्थाई है। जब तक समाज में बच्चे रहेंगे, बाल विमर्श की आवश्यकता बनी रहेगी।
अब आइए, बाल विमर्श के पहले बाल साहित्य की चर्चा की जाय ”बाल साहित्य को ऐसे साहित्य के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जिसके केन्द्र में बालक या बाल रूचि का विषय हो। इसके द्वारा बच्चों का स्वस्थ मनोरंजन किया जाता है, उन्हें परोक्ष रूप से नैतिक शिक्षा दी जाती है तथा उनके जीवन मूल्यों से परिचित कराया जाता है।“
इस प्रकार यदि समाज के सभी वर्गों के बच्चों को बाल साहित्य से परिचित कराया जाय तो बच्चों का सर्वागींण विकास निश्चित है।
बाल साहित्य के महत्व को ध्यान में रखकर डॉ. सरोज शर्मा ने एक शोध ग्रन्थ की रचना की है-‘परशुराम शुक्ल के बाल काव्य में पर्यावरण संरक्षण’ यह शोध ग्रन्थ एक ओर बाल साहित्य के शोध ग्रन्थों के अभाव की पूर्ति करता है तो दूसरी तरफ पर्यावरण प्रदूषण सम्बन्धी ज्वलंत समस्या पर प्रकाश डालता है।
– शारदा सुमन
प्रबंध निदेशक, श्वेतवर्णा प्रकाशन
Author | Dr. Saroj Sharma |
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Format | Hardcover |
ISBN | 978-93-90135-87-5 |
Language | Hindi |
Pages | 288 |
Publisher | Shwetwarna Prakashan |
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