साहित्य जगत में नंदी लाल निरंतर रचनाशील और चिंतनशील हैं। लेखनी की तेज धार से वे मनोभावों को विभिन्न विधाओं में प्रस्तुत करते रहते हैं। हिन्दी ग़ज़ल में उनकी विशेष रुचि है लेकिन इसके बाद भी उन्होंने छंदों के सृजन में कभी विराम नहीं आने दिया है। रीतिकाल की प्रसिद्ध छंद विधा सवैया के माध्यम से उन्होंने दया, प्रेम, करुणा, सहानुभूति, सहयोग, उदारता जैसे मानवीय मूल्यों को स्थापित करने का प्रयास किया है। चार पंक्तियों में रचित यह काव्य शैली जिन-जिन अर्हताओं की अपेक्षा करती है नंदी लाल उन पर खरे उतरे हैं।
प्लेटो ने कहा है-“कवि प्रेरणा के क्षणों में सामान्य जीवन के भावकोशों से ऊपर उठ जाता है। उसकी ममोदशा मद्यप जैसी हो जाती है। वह गा उठता है। अपनी वाणी को वह ईश्वर की वाणी समझता है। वह किसी की वंशी बन जाता है।”
नंदी लाल की काव्य प्रेरणा भी ऐसी ही प्रतीत होती है। इनकी काव्य भाषा रागात्मक, संश्लेषणात्मक व संप्रेषणीय है। काव्यात्मक तत्वों के साथ नवीन विषयों का चयन इनके सवैयों को परंपरागत सवैयों से अलग बनाता है।
भाव सौदर्य और शैल्पिक विशेषताओं के साथ नंदी लाल के सवैये समकाल की पड़ताल करने में सफल हुए हैं। इनमें ‘मानुष हौं तो वही रसखान’ की व्यंजना ‘लिये लुकाठी हाथ’ तक पहुँचती है।
सार्थक रचनाकर्म के लिये साधुवाद और भविष्य के लिये शुभकामनाएँ।
गरिमा सक्सेना
Pages | 96 |
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Author | Nandi Lal |
Format | Paperback |
ISBN | 978-81-192316-5-2 |
Language | Hindi |
Publisher | Shwetwarna Prakashan |
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